"अथ तृतीयोऽध्यायः"
तीसरा अध्याय

अर्जुन उवाच-

ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन । तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव ॥ १ ॥ 


व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे। तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ॥ २ ॥


अर्जुन बोले- 

हे जनार्दन! अगर आप कर्मसे बुद्धि (ज्ञान) को श्रेष्ठ मानते हैं, तो फिर हे केशव। मुझे घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं? आप अपने मिले हुए-से वचनोंसे मेरी बुद्धिको मोहित-सी कर रहे हैं। अतः आप निश्चय करके उस एक बातको कहिये, जिससे मैं कल्याणको प्राप्त हो जाऊँ।
Krishna
श्री कृष्ण की लीला

श्रीभगवानुवाच-


लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ। ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ॥ ३॥

श्रीभगवान् बोले- 


हे निष्पाप अर्जुन! इस मनुष्यलोकमें दो प्रकारसे होनेवाली निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गयी है। उनमें ज्ञानियोंकी निष्ठा ज्ञानयोगसे और योगियोंकी निष्ठा कर्मयोगसे होती है।

व्याख्या कर्मयोग और ज्ञानयोग-दोनों लौकिक निष्ठाएँ होनेसे समकक्ष हैं और दोनोंका एक ही फल है (गीता ५१४ ५)। यद्यपि कर्मयोगमें क्रियाकी और सांख्ययोगमें विवेककी मुख्यता है, तथापि फलमें दोनों एक हैं।

पूर्वपक्ष- यहाँ भक्तियोग-निष्ठाकी बात नहीं कही गयी है, इससे सिद्ध हुआ कि कर्मयोग और ज्ञानयोग- ये दो ही साधन मान्य हैं ?

उत्तरपक्ष- ऐसा नहीं है। कर्मयोग और ज्ञानयोग- दोनों साधकोंकी अपनी निष्ठाएँ हैं, पर भक्तियोग साधककी अपनी निष्ठा न होकर भगवतिष्ठा है। भक्तियोगमें साधक भगवान्पर निर्भर रहता है।

कर्मयोग और ज्ञानयोग-दोनों लौकिक निष्ठाएँ हैं। कर्मयोग में जगत्की और ज्ञानयोगमें जीवकी मुख्यता है। जगत् और जीव दोनों लौकिक हैं-'द्वाविमौ पुरुषों लोके क्षरश्चाक्षर एव च ( गीता १५ । १६ ); क्योंकि जगत् (जड़) और जीव (चेतन) ये दोनों विभाग हमारे जाननेमें आते हैं, पर भगवान् जानने में नहीं आते। भगवान् माननेके विषय हैं, जाननेके नहीं। परन्तु भक्तियोग अलौकिक निष्ठा है; क्योंकि इसमें भगवान्की मुख्यता है, जो जगत् और जीव दोनोंसे उत्तम हैं- 'उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः' (गीता १५।१७) ।


न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते । न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥ ४ ॥


मनुष्य न तो कर्मोंका आरम्भ किये बिना निष्कर्मताका अनुभव करता है और न कर्मोंके त्यागमात्र सिद्धिको ही प्राप्त होता है।

व्याख्या- 

जबतक साधकमें क्रियाका वेग रहता है, तबतक साधकके लिये निष्कामभावपूर्वक केवल दूसरोंके लिये कर्म करने आवश्यक हैं। दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेसे क्रियाका वेग शान्त हो जाता है और सभी कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात् बाँधनेवाले नहीं रहते। केवल कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करनेपर क्रियाका वेग शान्त नहीं होता। क्रियाका वेग शान्त हुए बिना प्रकृतिसे सम्बन्ध विच्छेद नहीं होता। प्रकृतिसे सम्बन्ध विच्छेद हुए बिना सिद्धिकी प्राप्ति नहीं होती।


न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् । कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥ ५ ॥


कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्थामें क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता; क्योंकि प्रकृतिके परवश हुए सब प्राणियोंसे प्रकृतिजन्य गुण कर्म करवा लेते हैं।

व्याख्या -

प्रकृतिका विभाग अलग है और स्वरूपका विभाग अलग है। क्रियामात्र प्रकृति-विभागमें है। स्वरूप अक्रिय है। प्रकृतिम अप है और स्वरूप में विश्राम है। अत: जबतक प्रकृतिक साथ सम्बन्ध है, तबतक मनुष्य किसी भी अवस्थामें क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता।

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् । इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥ ६॥


जो कर्मेन्द्रियों (सम्पूर्ण इन्द्रियों) को हठपूर्वक रोककर मनसे इन्द्रियोंके विषयोंका चिन्तन करते हुए बैठता है, वह मूढ़ बुद्धिवाला मनुष्य मिथ्याचारी (मिथ्या आचरण करनेवाला) कहा जाता है।

व्याख्या-

दूसरे अध्याय में भगवान् कह चुके हैं कि विषयोंका चिन्तन करनेवाले मनुष्यका पतन हो जाता है (गीता २।६२-६३) । यहाँ लोगोंको दिखाने के लिये बाहरसे स्थिर होकर बैठनेवाले तथा मनसे विषयोंका चिन्तन करनेवाले मनुष्यको मिथ्याचारी कहा गया है।

वास्तव में (भोगबुद्धिसे) बाहरसे भोग भोगने और मनसे उनका चिन्तन करने में कोई अन्तर नहीं है। दोनोंका अन्तःकरणपर समान प्रभाव पड़ता है। एक दृष्टिसे मनसे भोगोंका चिन्तन करनेसे साधकका विशेष पतन होता है; क्योंकि जिन भोगोंकी प्राप्ति नहीं होती या जिन भोगोंको वह लोक-मर्यादासे भोग नहीं पाता अथवा जिन भोगोंको भोगने में वह असमर्थ होता है, उनको भी वह मनसे भोग सकता है।

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन। कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥ ७ ॥


पन्तु हे अर्जुन जो मनुष्य मनसे इन्द्रियोंपर नियन्त्रण करके आसक्तिरहित होकर (निष्कामभावसे) कर्मेन्द्रियों (समस्त इन्द्रियों के द्वारा कर्मयोगका आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है।

व्याच्या फलेच्छा और आसक्तिका त्याग करके दूसरों लिये कर्म करनेवाला कर्मयोगी ज्ञानयोगीसे भी श्रेष्ठ है। आगे पाँचवें अध्यायमें भी भगवान् कर्मयोगको ज्ञानयोगसे श्रेष्ठ बतायेंगे (गीता ५।२)।

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः । शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः ॥ ८ ॥


तू शास्त्रविधिसे नियत किये हुए कर्तव्य कर्म कर; क्योंकि कर्म न करनेकी अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करनेसे तेरा शरीर निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा।

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः । तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर ॥ ९॥


यज्ञ (कर्तव्य-पालन) के लिये किये जानेवाले कर्मोंसे अन्यत्र (अपने लिये किये जानेवाले) कर्मों में लगा हुआ यह मनुष्य- समुदाय कर्मोंसे बँधता है; इसलिये हे कुन्तीनन्दन! तू आसक्तिरहित होकर उस यज्ञके लिये ही कर्तव्य-कर्म कर।

व्याख्या-

जो कर्म दूसरोंके लिये नहीं किये जाते, प्रत्युत अपने लिये किये जाते हैं, उन कर्मोंसे मनुष्य बँध जाता है। अत साधकको ये तीन बातें स्वीकार कर लेनी चाहिये - (१) शरीरसहित कुछ भी मेरा नहीं है, (२) मुझे कुछ भी नहीं चाहिये, और (३) मुझे अपने लिये कुछ भी नहीं करना है। पहली बात स्वीकार करनेसे दूसरी बात सुगम हो जायगी और दूसरी बात स्वीकार करनेसे तीसरी बात सुगम हो जायगी।

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः । अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ॥ १० ॥ 


देवान् भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः । परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥ ११ ॥


प्रजापति ब्रह्माजीने सृष्टिके आदिकालमें कर्तव्य कर्मोंके विधानसहित प्रजा (मनुष्य आदि) की रचना करके (उनसे, प्रधानतया मनुष्योंसे) कहा कि तुमलोग इस कर्तव्यके द्वारा सबकी वृद्धि करो और यह (कर्तव्य-कर्मरूप यज्ञ) तुमलोगोंको कर्तव्य-पालनकी आवश्यक सामग्री प्रदान करनेवाला हो। इस (अपने कर्तव्य-कर्म) के द्वारा तुमलोग देवताओंको उन्नत करो और वे देवतालोग (अपने कर्तव्यके द्वारा) तुमलोगोंको उन्नत करें। इस प्रकार एक-दूसरेको उन्नत करते हुए तुमलोग परम कल्याणको प्राप्त हो जाओगे।

व्याख्या-

अपने कर्तव्यका पालन करनेसे अर्थात दूसरोंके लिये निष्कामभावसे कर्म करनेसे अपना तथा प्राणिमात्रका हित होता है। परन्तु अपने कर्तव्यका पालन न करनेसे अपना तथा प्राणिमात्रका अहित होता है। कारण कि शरीरोंकी दृष्टिसे तथा आत्माकी दृष्टिसे भी मात्र प्राणी एक हैं, अलग-अलग नहीं।

मनुष्यशरीर केवल कल्याण-प्राप्तिके लिये ही मिला है। अतः अपना कल्याण करनेके लिये कोई नया काम करना आवश्यक नहीं है, प्रत्युत जो काम करते हैं, उसे ही फलेच्छा और आसक्तिका त्याग करके दूसरोंके हितके लिये करनेसे हमारा कल्याण हो जायगा।

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः । तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः ॥ १२ ।।


यज्ञसे पुष्ट हुए देवता भी तुमलोगोंको (बिना माँगे ही) कर्तव्यपालनकी आवश्यक सामग्री देते रहेंगे। इस प्रकार उन देवताओंकी दी हुई सामग्रीको दूसरोंकी सेवामें लगाये बिना जो मनुष्य (स्वयं ही उसका) उपभोग करता है, वह चोर ही है।

व्याख्या- 

शरीर पांचभौतिक सृष्टिमात्रका एक क्षुद्रतम अंश है। अतः स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण-तीनों शरीर संसारके तथा संसारके लिये ही हैं। शरीर स्वयं (स्वरूप) के किंचिन्मात्र भी काम नहीं आता, प्रत्युत शरीरका सदुपयोग ही स्वयंके काम आता है। शरीरका सदुपयोग है–उसे दूसरोंकी सेवामें लगाना-संसारकी  सेवामें समर्पित कर देना। जो मनुष्य मिली हुई सामग्रीका भाग दूसरों (अभावग्रस्तों) को दिये बिना अकेले ही उसका उपभोग करता है, वह चोर ही है। उसे वही दण्ड मिलना चाहिये, जो चोरको मिलता है।

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः । भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ॥ १३ ॥


यज्ञशेष (योग) का अनुभव करनेवाले श्रेष्ठ मनुष्य सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाते हैं। परन्तु जो केवल अपने लिये ही पकाते अर्थात् सब कर्म करते हैं, वे पापीलोग तो पापका ही भक्षण करते हैं।

सम्पूर्ण पापोंका कारण है-कामना। अत: कामनापूर्वक व्याख्या- अपने लिये कोई भी कर्म करना पाप (बन्धन) है और निष्कामभावसे दूसरेके लिये कर्म करना पुण्य है। पापका फल दुःख और पुण्यका फल सुख है। इसलिये स्वार्थभावसे अपने लिये कर्म करनेवाले दुःख पाते हैं और निःस्वार्थभावसे दूसरोंके लिये कर्म करनेवाले सुख पाते हैं।

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः । यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥ १४॥ 


कर्म ब्रह्मोद्धवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् । तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ॥ १५ ॥ 


सम्पूर्ण प्राणी अन्नसे उत्पन्न होते हैं। अन्नकी उत्पत्ति वर्षासे होती है। वर्षा यज्ञसे होती है। यज्ञ कर्मोंसे सम्पन्न होता है। कर्मोंको तू वेदसे उत्पन्न जान और वेदको अक्षर ब्रह्मसे प्रकट हुआ जान। इसलिये वह सर्वव्यापी परमात्मा यज्ञ (कर्तव्य कर्म) में नित्य स्थित है।

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः । अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥ १६ ॥


हे पार्थ। जो मनुष्य इस लोकमें इस प्रकार (परम्परासे) प्रचलित सृष्टि-चक्रके अनुसार नहीं चलता, वह इन्द्रियोंके द्वारा भोगोंमें रमण करनेवाला अघायु (पापमय जीवन बितानेवाला) मनुष्य संसारमें व्यर्थ ही जीता है।

व्याख्या- 

जो मनुष्य लोक मर्यादा तथा शास्त्र मर्यादाके अनुसार अपने कर्तव्यका पालन नहीं करता, उसे संसारमें जीनेका अधिकार नहीं है। कारण कि मनुष्योंके द्वारा अपने कर्तव्यका पालन न करनेसे संसारमात्रको हानि पहुँचती है। वर्तमानमें जो अन्न, जल, वायु आदि प्रदूषित हो रहे हैं, अकाल, अनावृष्टि आदि प्राकृतिक आपदाएँ आ रही हैं, उसमें मनुष्यका कर्तव्य-च्युत होना ही प्रधान कारण है।
अपने लिये कर्म करना अनधिकृत चेष्टा है। कारण कि जो कुछ मिला है, वह सब संसारकी सामग्री है। शरीरादि सब पदार्थ संसारके ही हैं, अपने नहीं। अत: हमपर संसारका ऋण है, जिसे उतारने के लिये हमें सब कर्म संसारके हित के लिये ही करते हैं।

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः । आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥ १७॥


परन्तु जो मनुष्य अपने-आपमें ही रमण करनेवाला और अपने-आपमें ही तृप्त तथा अपने-आपमें ही सन्तुष्ट है, उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है।

व्याख्या- 

जबतक परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति नहीं होती, तभीतक मनुष्यपर कर्तव्य पालनकी जिम्मेवारी रहती है। परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति होनेपर महापुरुषके लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता। उसके संसारमें रहनेमात्र से संसारका हित होता है।

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन । न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ॥ १८ ।।


उस (कर्मयोगसे सिद्ध हुए महापुरुष) का इस संसारमें न तो कर्म करनेसे कोई प्रयोजन रहता है और न कर्म न करनेसे ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियोंमें (किसी भी प्राणीके साथ) इसका किंचिन्मात्र भी स्वार्थका सम्बन्ध नहीं रहता।

व्याख्या-

जैसे 'करना' प्रकृतिके सम्बन्धसे है, ऐसे ही न करना' भी प्रकृतिके सम्बन्धसे है। करना और न करना-दोनों सापेक्ष हैं; परन्तु तत्त्व निरपेक्ष है। इसलिये स्वयं (चिन्मय • सत्तामात्र) का न तो करनेके साथ सम्बन्ध है, न नहीं करने के साथ सम्बन्ध है। करना, न करना तथा पदार्थ-ये सब उसी सत्तामात्र से प्रकाशित होते हैं (गीता १३।३३)।

कर्मयोगसे सिद्ध हुए महापुरुषमें करनेका राग तथा पानेकी इच्छा सर्वथा नहीं रहती, इसलिये उसका न तो कुछ करनेसे मतलब रहता है, न कुछ नहीं करनेसे मतलब रहता है और न उसका किसी भी प्राणी-पदार्थसे कुछ पानेसे ही मतलब रहता है। तात्पर्य है कि उसका प्रकृति-विभागसे सर्वथा सम्बन्ध नहीं रहता।

तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर। असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः ॥ १९ ॥


इसलिये तू निरन्तर आसक्तिरहित होकर कर्तव्य कर्मका भलीभाँति आचरण कर; क्योंकि आसक्ति रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्माको प्राप्त हो जाता है।

व्याख्या- 

मनुष्य कर्मोंसे नहीं बँधता, प्रत्युत आसक्तिसे बँधता है। आसक्ति ही मनुष्यका पतन करती है, कर्म नहीं। आसक्ति रहित होकर दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेसे मनुष्य संसार बन्धनसे मुक्त होकर परमात्मतत्त्वको प्राप्त हो जाता है। कर्ममें परिश्रम और कर्म-योगमें विश्राम है। शरीरकी आवश्यकता परिश्रममें है, विश्राममें नहीं। कर्मयोगमें शरीरसे होनेवाला परिश्रम (कर्म) दूसरोंकी सेवाके लिये और विश्राम (योग) अपने लिये है। 

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः । लोकसङ्ग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ॥ २० ॥


राजा जनक जैसे अनेक महापुरुष भी कर्म (कर्म योग) के द्वारा ही परम-सिद्धिको प्राप्त हुए थे। इसलिये लोकसंग्रहको देखते हुए भी तू (निष्काम भावसे) कर्म करनेके ही योग्य है अर्थात् अ करना चाहिये।

व्याख्या-

जनकादि राजाओंने भी कर्मयोगके द्वारा ही मुक्ति प्राप्त की थी। इससे सिद्ध होता है कि कर्मयोग मुक्तिका स्वतन्त्र साधन है।

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः । स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥ २१ ॥


श्रेष्ठ मनुष्य जो-जो आचरण करता है, दूसरे मनुष्य वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, दूसरे मनुष्य उसीके अनुसार आचरण करते हैं।


व्याख्या-

समाजमें जिस मनुष्यको लोग श्रेष्ठ मानते हैं, उसपर विशेष जिम्मेवारी रहती है कि वह ऐसा कोई आचरण न करे तथा ऐसी कोई बात न कहे, जो लोक-मर्यादा तथा शास्त्र मर्यादाके विरुद्ध हो।


न मे पार्धारित कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन मानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥ २२ ॥


हे पार्थ। मुझे तीनों लोकोंमें न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई प्राप्त करनेयोग्य वस्तु अप्राप्त है, फिर भी मैं कर्तव्यकर्ममें ही लगा रहता हूँ।

-भगवान् भी अवतारकालमें सदा कर्तव्य कर्ममें लगे रहते हैं, इसलिये जो साधक फलेच्छा व आसक्तिरहित होकर सदा कर्तव्य-कर्ममें लगा रहता है, वह सुगमतापूर्वक भगवान्को प्राप्त हो जाता है।


यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः । मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥ २३ ॥ 
उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्। सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ॥ २४ ॥


क्योंकि हे पार्थ! अगर मैं किसी समय सावधान होकर कर्तव्य-कर्म न करूँ (तो बड़ी हानि हो जाय; क्योंकि) मनुष्य सब प्रकारसे मेरे ही मार्गका अनुसरण करते हैं। यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जायँ और मैं वर्णसंकरताको करनेवाला होऊँ तथा इस समस्त प्रजाको नष्ट करनेवाला बनूँ।

सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत । कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसङ्ग्रहम् ॥ २५ ॥ 


न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम् । जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन् ॥ २६ ॥


हे भरतवंशोद्भव अर्जुन ! कर्ममें आसक्त हुए अज्ञानीज जिस प्रकार कर्म करते हैं, आसक्तिरहित तत्त्वज्ञ महापुरुष भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करे। सावधान तत्त्वज्ञ महापुरुष कर्मों में आसक्तिवाले अज्ञानी मनुष्योंकी बुद्धिमें भ्रम उत्पन्न न करे, प्रत्युत स्वयं समस्त कर्मोंको अच्छी तरह करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवाये ।


व्याख्या- 

यद्यपि ज्ञानी महापुरुषके लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता—'तस्य कार्यं न विद्यते' (गीता ३ । १७), तथापि भगवान् उसे आज्ञा देते हैं कि वह लोकसंग्रहके लिये स्वयं भी सावधानीपूर्वक कर्तव्य-कर्म करे और कर्मोंमें आसक्त दूसरे मनुष्यों से भी वैसे ही कर्तव्य-कर्म करवाये ।

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः । अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥ २७॥


सम्पूर्ण कर्म सब प्रकारसे प्रकृतिके गुणोंद्वारा किये जाते हैं; परन्तु अहंकारसे मोहित अन्तःकरणवाला अज्ञानी मनुष्य मैं कर्ता हूँ- ऐसा मान लेता है।

व्याख्या - 

जड़ विभाग अलग है और चेतन विभाग अलग है। क्रिया मात्र जड़ प्रकृतिमें ही होती है। चेतनमें कभी कोई क्रिया होती ही नहीं—'शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते' (गीता) १३।३१) । क्रियाका आरम्भ और समाप्ति तथा पदार्थका आदि और अन्त होता है; परन्तु चेतनका न आरम्भ तथा समाप्ति होती है, न आदि तथा अन्त होता है।

भगवान्ने गीतामें कर्मोंके होनेमें पाँच कारण बताये हैं 
(१) प्रकृति – 'प्रकृतेः क्रियमाणानि०' (३।२७),'प्रकृत्यैव 'च कर्माणि०' ( १३ । २९ ) ।
(२) गुण – 'गुणा गुणेषु वर्तन्ते' (३ । २८ ), 'नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं०' (१४ । १९ ) । ( ३ ) इन्द्रियाँ – 'इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्ते' (५।९) ।
(४) स्वभाव – ( क्रियाका वेग ) – 'स्वभावस्तु प्रवर्तते (५।१४), 'प्रकृतिं यान्ति भूतानि०' (३।३३ ) ।
(५) पाँच हेतु–'अधिष्ठानं तथा कर्ता०' (१८।१४) ।

उपर्युक्त पाँचोंका मूल कारण एक 'अपरा प्रकृति' (जड़ विभाग) ही है। आजतक अनेक योनियोंमें जीवने जो भी कर्म किये हैं, उनमें से कोई भी कर्म तथा कोई भी शरीर स्वरूपतक नहीं पहुँचा। सूर्यतक अंधकार कैसे पहुँच सकता है? कारण कि कर्म और शरीरादि पदार्थोंका विभाग ही अलग है और स्वरूपका विभाग ही अलग है।

तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः । गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥ २८ ॥


परन्तु हे महाबाहो ! गुण-विभाग और कर्म विभागको तत्त्वसे जाननेवाला महापुरुष 'सम्पूर्ण गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं'– ऐसा मानकर उनमें आसक्त नहीं होता।

व्याख्या—

यह सिद्धान्त है कि संसार (पदार्थ और क्रिया) से अलग होनेपर ही संसारका ज्ञान होता है और परमात्मा से एक होनेपर ही परमात्माका ज्ञान होता है। कारण यह है कि वास्तवमें हम संसारसे अलग और परमात्मासे एक हैं। तत्त्वज्ञ महापुरुष गुण-विभाग (पदार्थ) और कर्म-विभाग (क्रिया) से सर्वथा अलग होनेपर यह जान लेता है कि सम्पूर्ण गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं। तात्पर्य है कि सम्पूर्ण क्रियाएँ संसारमें ही हो रही हैं। स्वरूपमें कभी कोई क्रिया नहीं होती। 

प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु । तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत् ॥ २९॥


प्रकृतिजन्य गुणोंसे अत्यन्त मोहित हुए अज्ञानी मनुष्य गुणों और कर्मोंमें आसक्त रहते हैं। उन पूर्णतया न समझनेवाले मन्दबुद्धि अज्ञानियोंको पूर्णतया जाननेवाला ज्ञानी मनुष्य विचलित न करे । 


मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्याध्यात्मचेतसा ।निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥ ३० ॥ 


तू विवेकवती बुद्धिके द्वारा सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मोंको मेरे अर्पण करके कामनारहित, ममतारहित और सन्तापरहित होकर युद्धरूप कर्तव्य-कर्मको कर ।

व्याख्या- 

यदि साधक भगवन्निष्ठ है तो उसे सम्पूर्ण कर्म भगवान्के अर्पित करके करने चाहिये। अर्पण करनेका तात्पर्य है—अपने लिये कोई कर्म न करके केवल भगवान्की प्रसन्नताके लिये ही सब कर्म करना ।


ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः । श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः ॥ ३१ ॥


जो मनुष्य दोष-दृष्टिसे रहित होकर श्रद्धापूर्वक मेरे इस (पूर्वश्लोकमें वर्णित) मतका सदा अनुसरण करते हैं, वे भी कर्मोंके बन्धनसे मुक्त हो जाते हैं ।


व्याख्या- 

भगवान्का मत है – मिलने तथा बिछुड़नेवाली कोई भी वस्तु ( पदार्थ और क्रिया) अपनी तथा अपने लिये नहीं है। भगवान्‌का मत ही वास्तविक सिद्धान्त है, जिसका अनुसरण करके मात्र मनुष्य मुक्त हो सकते हैं।


ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् । सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ॥ ३२ ॥


परन्तु जो मनुष्य मेरे इस मतमें दोष-दृष्टि करते हुए इसका अनुष्ठान नहीं करते, उन सम्पूर्ण ज्ञानोंमें मोहित और अविवेकी मनुष्योंको नष्ट हुए ही समझो अर्थात् उनका पतन ही होता है।

सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि । प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ॥ ३३ ॥


सम्पूर्ण प्राणी प्रकृतिको प्राप्त होते हैं। ज्ञानी महापुरुष भी अपनी प्रकृतिके अनुसार चेष्टा करता है। (फिर इसमें किसीका) हठ क्या करेगा ?

व्याख्या- 

चेतन तत्त्व सम रहता है और प्रकृति विषम रहती है। इसलिये तत्त्वज्ञ महापुरुषोंके स्वरूपमें तो कोई भिन्नता नहीं होती, पर उनकी प्रकृति ( स्वभाव) में भिन्नता होती है। उनका स्वभाव राग-द्वेषसे रहित होनेके कारण महान् शुद्ध होता है। स्वभाव शुद्ध होनेपर भी तत्त्वज्ञ महापुरुषोंके स्वभावमें (जिस साधन मार्गसे सिद्धि प्राप्त की है, उस मार्गके सूक्ष्म संस्कार रहनेके कारण) भिन्नता रहती है और उस स्वभावके अनुसार ही उनके द्वारा भिन्न-भिन्न व्यवहार होता है।

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ । तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥ ३४ ॥


इन्द्रिय-इन्द्रियके अर्थमें (प्रत्येक इन्द्रियके प्रत्येक विषयमें) मनुष्यके राग और द्वेष व्यवस्थासे (अनुकूलता और प्रतिकूलताको लेकर) स्थित हैं। मनुष्यको उन दोनोंके वशमें नहीं होना चाहिये क्योंकि वे दोनों ही इसके (पारमार्थिक मार्गमें) विघ्न डालनेवाले शत्रु हैं।

व्याख्या -

भूलसे अपने सुख-दुःखका कारण दूसरेको माननेसे ही राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं। यदि अन्तःकरणमें राग-द्वेष उत्पन्न हो जायँ तो उनके वशीभूत होकर कोई क्रिया नहीं करनी चाहिये; क्योंकि क्रिया करनेसे राग-द्वेष दृढ़ हो जाते हैं। साधक राग-द्वेषके वशीभूत भी न हो और उनको अपने में भी न माने। राग-द्वेष आगन्तुक दोष हैं। हमें इनके आने-जानेका ज्ञान होता है; अतः हम इनसे अलग हैं। 

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्। स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥ ३५॥


अच्छी तरह आचरणमें लाये हुए दूसरेके धर्मसे गुणोंकी कमीवाला अपना धर्म श्रेष्ठ है। अपने धर्ममें तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरेका धर्म भयको देनेवाला है।

व्याख्या-

वर्ण, आश्रम आदिके अनुसार निष्कामभावसे अपने अपने कर्तव्यका पालन करना मनुष्यका 'स्वधर्म' है और जो उसके लिये निषिद्ध है, वह 'परधर्म' है। जिनमें दूसरेके अहितका भाव होता है, वे चोरी, हिंसा आदि किसीके भी स्वधर्म नहीं हैं, प्रत्युत कुधर्म अथवा अधर्म हैं।

प्रत्येक धर्ममें कुधर्म, अधर्म और परधर्म- ये तीनों रहते हैं; जैसे-दूसरेके अनिष्टका भाव, कूटनीति आदि 'धर्ममें कुधर्म' है। यज्ञमें पशुबलि देना आदि 'धर्ममें अधर्म' है। जो अपने लिये निषिद्ध है, ऐसा दूसरे वर्ण, आश्रम आदिका धर्म 'धर्ममें परधर्म' है। कुधर्म, अधर्म और परधर्मसे कल्याण नहीं होता। कल्याण उस धर्मसे होता है, जिसमें अपने स्वार्थ तथा अभिमानका त्याग और दूसरेका वर्तमानमें और भविष्यमें हित होता हो।

अर्जुन उवाच-


अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः । अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥ ३६॥


अर्जुन बोले- 

हे वार्ष्णेय! फिर यह मनुष्य न चाहता हुआ भी जबर्दस्ती लगाये हुएकी तरह किससे प्रेरित होकर पापका आचरण करता है ?

श्रीभगवानुवाच-


काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः । महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् ॥ ३७॥

श्रीभगवान् बोले – 

रजोगुणसे उत्पन्न यह काम अर्थात् कामना (ही पापका कारण है)। यह काम ही क्रोध (-में परिणत होता) है। यह बहुत खाने वाला और महापापी है। इस विषयमें तू इसको ही वैरी जान ।

व्याख्या - 

जैसा मैं चाहूँ, वैसा हो जाय यह 'काम' अर्थात कामना है। किसी भी क्रिया, वस्तु और व्यक्तिका अच्छा लगना अथवा उससे कुछ भी सुख चाहना 'काम' है। इस कामरूप एक दोषमें अनन्त दोष, अनन्त पाप भरे हुए है! अतः जबतक मनुष्यके भीतर काम है, तबतक वह सर्वथा निर्दोष, निष्पाप नहीं हो सकता। कामनाके सिवाय पापोंका अन्य कोई कारण नहीं है। तात्पर्य है। कि मनुष्यसे न तो ईश्वर पाप कराता है, न भाग्य पाप कराता है, न समय पाप कराता है, न परिस्थिति पाप कराती है, न कलियुग पाप कराता है, प्रत्युत मनुष्य स्वयं ही कामनाके वशीभूत होकर पाप करता है।

धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च। यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ॥ ३८ ॥


जैसे धुएँसे अग्नि और मैलसे दर्पण ढका जाता है तथा जैसे जेरसे गर्भ ढका रहता है, ऐसे ही उस कामनाके द्वारा यह (ज्ञान अर्थात् विवेक) ढका हुआ है। 

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा। कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ॥ ३९॥


हे कुन्तीनन्दन! इस अग्निके समान कभी तृप्त न होनेवाले और विवेकियोंके कामनारूप नित्य वैरीके द्वारा मनुष्यका विवेक ढका हुआ है। 

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते ।एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् ॥ ४० ॥ 


इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि इस कामनाके वास स्थान कहे गये हैं। यह कामना इन (इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि) के द्वारा ज्ञानको ढककर देहाभिमानी मनुष्यको मोहित करती है।

व्याख्या-

काम पाँच स्थानों में दीखता है – (१) विषयों (गीता ३।३४), (२) इन्द्रियोंमें, (३) मनमें, (४) बुद्धिमें और (५) अहम् (जड़-चेतनके तादात्म्य) में (गीता २।५९) । इन पाँच स्थानों में दीखनेके कारण ये पाँचों कामके वासस्थान कहे गये हैं। मूलमें काम 'अहम्' में ही रहता है (गीता ३ | ४२-४३) । 


तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ। पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् ॥ ४१ ॥ 


इसलिये हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! तू सबसे पहले इन्द्रियोंको वशमें करके इस ज्ञान और विज्ञानका नाश करनेवाले महान् पापी कामको अवश्य ही बलपूर्वक मार डाल।


व्याख्या—

संसारकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है - यह ज्ञान है। सब कुछ भगवान् ही हैं— यह विज्ञान है। काम साधकको न तो 'ज्ञान' प्राप्त करने देता है, न 'विज्ञान'।

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः । मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥ ४२ ॥ 


एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना । जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ॥ ४३ ॥


इन्द्रियों को (स्थूलशरीरसे) पर ( श्रेष्ठ, सबल, प्रकाशक, व्यापक तथा सूक्ष्म) कहते हैं। इन्द्रियोंसे पर मन है, मनसे भी पर बुद्धि है और जो बुद्धिसे भी पर है, वह (काम) है। इस तरह बुद्धिसे पर (काम) को जानकर अपने द्वारा अपने-आपको वशमें करके हे महाबाहो! तू इस कामरूप दुर्जय शत्रुको मार डाल।


व्याख्या- 

पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहम् – ये आठ प्रकारके भेदोंवाली अपरा प्रकृति है। (गीता ७।४)। बुद्धिसे भी पर जो अहम् है, उस अहम्के जड़ अंशमें 'काम' रहता है। तात्पर्य है कि कामरूप विकार अपरा प्रकृति ( जड़) में रहता है, परा प्रकृति (चेतन) में नहीं। परन्तु अहम्के साथ तादात्म्य करनेके कारण उस कामरूप विकारको चेतन ( जीवात्मा) अपनेमें मान लेता है। जबतक अहम्रूप जड़ चेतनका तादात्म्य रहता है, तबतक जड़ और चेतनके विभागका ज्ञान नहीं होता। जबतक तादात्म्य है, तभीतक 'काम' है। तादात्म्य टूटनेपर उस कामका स्थान 'प्रेम' ले लेता है। काममें संसारकी ओर आकर्षण होता है और प्रेममें भगवान्‌की ओर।


ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्यायः॥३॥