
अथ चतुर्थोऽध्यायः
चौथा अध्याय
श्रीभगवानुवाच-
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्। विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ॥ १॥
श्रीभगवान् बोले –
मैंने इस अविनाशी योग (कर्मयोग) को सूर्यसे कहा था। फिर सूर्यने (अपने पुत्र) वैवस्वत मनुसे कहा और मनुने (अपने पुत्र) राजा इक्ष्वाकुसे कहा।
व्याख्या -
पूर्वपक्ष-अव्यय (नित्य) तो साध्य होता है, साधन कैसे अव्यय होगा ?
उत्तरपक्ष-साधक ही साधन होकर साध्यमें लीन होता है। अतः साधक, साधन और साध्य-तीनों ही एक होनेसे अव्यय हैं; परन्तु मोहके कारण तीनों अलग-अलग दीखते हैं।
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः । स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥२
है परन्तप ! इस तरह परम्परासे प्राप्त इस कर्म योगको राजर्षियोंने जाना। परन्तु बहुत समय बीत जाने के कारण वह योग इस मनुष्यलोकमें लुप्तप्राय हो गया।
स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः । भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ॥ ३
तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है, इसलिये वही यह पुरातन योग आज मैंने तुझसे कहा है; क्योंकि यह बड़ा उत्तम रहस्य है।
अर्जुन उवाच-
अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः । कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति ॥ ४ ॥
अर्जुन बोले-
आपका जन्म तो अभीका है और सूर्यका जन्म बहुत पुराना है; अतः आपने ही सृष्टि के आरम्भमें (सूर्यसे) यह योग कहा था- यह बात मैं कैसे समझँ ?
श्रीभगवानुवाच-
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन। तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥ ५ ॥
श्रीभगवान् बोले –
हे परन्तप अर्जुन! मेरे और तेरे बहुत-से जन्म हो चुके हैं। उन सबको मैं जानता हूँ, पर तू नहीं जानता।
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्। प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ॥ ६ ॥
मैं अजन्मा और अविनाशी-स्वरूप होते हुए भी तथा सम्पूर्ण प्राणियोंका ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृतिको अधीन करके अपनी योगमायासे प्रकट होता हूँ ।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥ ७॥
हे भरतवंशी अर्जुन! जब-जब धर्मकी हानि और अधर्मकी वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने आपको (साकाररूपसे) प्रकट करता हूँ।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ ८ ॥
साधुओं (भक्तों) की रक्षा करनेके लिये, पापकर्म करनेवालोंका विनाश करनेके लिये और धर्मकी भलीभाँति स्थापना करनेके लिये मैं युग-युगमें प्रकट हुआ करता हूँ।
व्याख्या-
परमात्मा अक्रिय हैं; अतः अवतार लेकर क्रिया (लीला) करनेके लिये वे अपनी प्रकृतिकी सहायता लेते हैं। अवतारमें सम्पूर्ण याएँ परमात्माके द्वारा की जाती हुई दीखनेप भी वास्तवमें वे क्रियाएँ प्रकृतिके द्वारा ही की जाती हैं। इसलिये सीताजीने कहा है कि सम्पूर्ण क्रियाएँ मैंने ही की हैं, भगवान् रामने नहीं
एवमादीनि कर्माणि मयैवाचरितान्यपि।आरोपयन्ति रामेऽस्मिन्निर्विकारेऽखिलात्मनि॥
(अध्यात्म०, बाल० १।४२) '( भगवान् श्रीरामके अवतार लेनेसे लेकर राज्य-पदपर अभिषिक्त होनेतकके) सम्पूर्ण कार्य यद्यपि मेरे ही किये हुए हैं, तो भी लोग उन्हें इन निर्विकार सर्वात्मा भगवान्में आरोपित करते हैं।' आगे इसी अध्यायके तेरहवें श्लोकमें भी भगवान् कहेंगे
'तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्'।
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः । त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥ ९॥
हे अर्जुन! मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं। इस प्रकार (मेरे जन्म और कर्मको) जो मनुष्य तत्त्वसे जान लेता है अर्थात् दृढ़तापूर्वक मान लेता है, वह शरीरका त्याग करके पुनर्जन्मको प्राप्त नहीं होता, प्रत्युत मुझे प्राप्त होता है।
व्याख्या-
अवतारकालमें भगवान् मनुष्योंके कल्याण के लिये ही सब क्रियाएँ करते हैं। जन्म और कर्मसे सर्वथा रहित होनेपर भी भगवान् अपनी प्रकृतिकी सहायतासे जन्म और कर्मकी लीला करते हुए दीखते हैं—यह भगवान्के जन्म और कर्मकी अलौकिकता है। साधक भी यदि अपरा प्रकृतिके अहम्के साथ अपने तादात्म्यका त्याग कर दे तो कर्तृत्व-भोक्तृत्वसे रहित होनेपर उसके कर्म भी दिव्य हो जायँगे। कर्मोंका अकर्म होना ही कर्मोंका दिव्य होना है। यह दिव्यता कर्मयोगसे आती है।
वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः । बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः ॥ १० ॥
राग, भय और क्रोधसे सर्वथा रहित, मुझमें तल्लीन, मेरे ही आश्रित तथा ज्ञानरूप तपसे पवित्र हुए बहुत-से भक्त मेरे स्वरूपको प्राप्त हो चुके हैं।
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥ ११॥
हे पृथानन्दन! जो भक्त जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं, मैं उन्हें उसी प्रकार आश्रय देता हूँ; क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकारसे मेरे मार्गका अनुसरण करते हैं।
व्याख्या-
यद्यपि सब कुछ परमात्मा ही हैं—'वासुदेवः सर्वम्' (गीता ७ । १९), तथापि मनुष्य जिस भावसे देखता है, भगवान् भी उसके सामने उसी रूपसे प्रकट हो जाते हैं - जिन्ह के रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी ॥
(मानस, बाल० २४१ । २) जीव जगत्को धारण करता है—'ययेदं धार्यते जगत् (गीता ७।५ ) तो भगवान् जगद्रूपसे प्रकट हो जाते हैं। नास्तिक भगवान्को नहीं मानता तो भगवान् उसके सामने 'नहीं'-रूपसे प्रकट हो जाते हैं। चोर भगवान्की मूर्तिमें भगवान्को न देखकर पत्थर, स्वर्ण आदिको देखता है तो भगवान् उसके लिये पत्थर, स्वर्ण आदिके रूपमें प्रकट हो जाते हैं।
काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः । क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ॥ १२ ॥
कर्मोंकी सिद्धि (फल) चाहनेवाले मनुष्य देवताओंकी उपासना किया करते हैं; क्योंकि इस मनुष्यलोकमें कर्मोंसे उत्पन्न होनेवाली सिद्धि जल्दी मिल जाती है।
व्याख्या-
मनुष्यलोकमें सकाम कर्मोंसे होनेवाली सिद्धि शीघ्र प्राप्त होती है; परन्तु परिणाममें वह बन्धनकारक होती है। जैसे, एलोपैथिक दवा जल्दी असर करती है, पर परिणाममें वह शरीरके लिये हानिकारक होती है। परन्तु आयुर्वेदिक दवा देरसे असर करती है, पर परिणाममें वह लाभदायक होती है। जनकादि महापुरुषोंने निष्काम कर्म (कर्मयोग) से संसिद्धि (सम्यक् सिद्धि अर्थात् मुक्ति ) प्राप्त की थी—'कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः' (गीता ३ । २०) । सकाम कर्मोंसे होनेवाली सिद्धि नाशवान् होती है, और निष्काम कर्मोंसे होनेवाली सिद्धि अविनाशी होती है।
निष्काम कर्म अर्थात् कर्मयोगसे कर्मजन्य सिद्धिकी इच्छा मिटती है। जन्य वस्तुसे मुक्ति नहीं होती।
चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः । तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ॥ १३ ॥
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा । इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ॥ १४ ॥
मेरे द्वारा गुणों और कर्मोंके विभागपूर्वक चारों वर्णोंकी रचना की गयी है। उस (सृष्टि रचना आदि) का कर्ता होनेपर भी मुझ अविनाशी परमेश्वरको तू अकर्ता जान! कारण कि कर्मोंके फलमें मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिये मुझे कर्म लिप्त नहीं करते। इस प्रकार जो मुझे तत्त्वसे जान लेता है, वह भी कर्मोंसे नहीं बँधता ।
व्याख्या –
चारों वर्णोंकी रचना मेरे द्वारा की गयी है - इस भगवद्वचनसे सिद्ध होता है कि वर्ण जन्मसे होता है, कर्मसे नहीं। कर्मसे तो वर्णकी रक्षा होती है।
जैसे सृष्टि रचनारूप कर्म करनेपर भी भगवान् अकर्ता ही रहते हैं, ऐसे ही भगवान्का अंश जीव भी कर्म करते हुए अकर्ता ही रहता है— 'शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते' (गीता १३ । ३१) । परन्तु जीव अहम्से सम्बन्ध जोड़कर अज्ञानवश अपनेको कर्ता मान लेता है— 'अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते' (गीता ३।२७ ) ।
एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः । कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम् ॥ १५॥
पूर्वकालके मुमुक्षुओंने भी इस प्रकार जानकर कर्म किये हैं, इसलिये तू भी पूर्वजोंके द्वारा सदासे किये जानेवाले कर्मोंको ही (उन्हींकी तरह) कर।
व्याख्या-
भगवान्का मत है कि मुमुक्षा जाग्रत् होनेपर भी कमका त्याग नहीं करना चाहिये, प्रत्युत कर्तृत्वाभिमान तथा फलासक्तिका त्याग करके कर्तव्यकर्म करते रहना चाहिये। कर्म करनेसे बन्धन होता है, पर कर्मयोगसे मोक्ष (विश्राम) प्राप्त होता है।
किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः । तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥ १६ ॥
कर्म क्या है और अकर्म क्या है - इस प्रकार इस विषयमें विद्वान् भी मोहित हो जाते हैं। अतः वह कर्म तत्त्व मैं तुझे भलीभाँति कहूँगा, जिसको जानकर तू अशुभ (संसार-बन्धन)-से मुक्त हो जायगा।
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः। अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ॥ १७॥
कर्मका तत्त्व भी जानना चाहिये और अकर्मका तत्त्व भी जानना चाहिये तथा विकर्मका तत्त्व भी जानना चाहिये; क्योंकि कर्मोंकी गति गहन है अर्थात् समझनेमें बड़ी कठिन है।
व्याख्या-
कामनाके कारण क्रिया ही फलजनक 'कर्म' बन जाती है। कामना बढ़नेपर 'विकर्म' (पाप) होते हैं। कामनाका सर्वथा नाश होनेपर सभी कर्म 'अकर्म' हो जाते हैं अर्थात् फल देनेवाले नहीं होते।
कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः । स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ॥ १८ ॥
जो मनुष्य कर्ममें अकर्म देखता है और जो अकर्ममें कर्म देखता है, वह मनुष्योंमें बुद्धिमान् है, वह योगी है और सम्पूर्ण कर्मोंको करनेवाला (कृतकृत्य) है।
व्याख्या-
कर्म करते निर्लिप्त रहना अर्थात् कर्तृत्वाभिमान और फलेच्छा न रखना 'कर्ममें अकर्म' देखना है। निर्लिप्त रहते हुए अर्थात् कर्तृत्वाभिमान और फलेच्छाका त्याग करके कर्म करना 'अकर्ममें कर्म' देखना है। इन दोनों से ही कर्मयोगकी सिद्धि होती है। कर्मयोगी कर्म करते हुए अथवा न करते हुए, प्रत्येक अवस्थामें निर्लिप्त रहता है "नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन' (गीता ३।१८ ) ।
यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः । ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः ॥ १९॥
जिसके सम्पूर्ण कर्मोंके आरम्भ संकल्प और कामनासे रहित हैं तथा जिसके सम्पूर्ण कर्म ज्ञानरूपी अग्निसे जल गये हैं, उसको ज्ञानिजन भी पण्डित (बुद्धिमान्) कहते हैं।
व्याख्या-
जो कर्मयोगी कर्म करते हुए निर्लिप्त ( संकल्प और कामनासे रहित ) रहता है और निर्लिप्त रहते हुए सब कर्म करता है, वह सम्पूर्ण ज्ञानियों में श्रेष्ठ है।
त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः । कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः ॥ २० ॥
जो कर्म और फलकी आसक्तिका त्याग करके (संसारके) आश्रयसे रहित और सदा तृप्त है, वह कर्मोंमें अच्छी तरह लगा हुआ भी वास्तवमें कुछ भी नहीं करता।
व्याख्या-
जिसके भीतर कर्तृत्वाभिमान और फलासक्ति है, वह कर्म न करनेपर भी बँधा हुआ है। परन्तु जिसके भीतर कर्तृत्वाभिमान और फलासक्ति नहीं है, वह कर्म करते हुए भी मुक्त है।
निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः । शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥ २१ ॥
जिसका शरीर और अन्तःकरण अच्छी तरहसे वशमें किया हुआ है, जिसने सब प्रकारके संग्रहका परित्याग कर दिया है, ऐसा इच्छारहित (कर्मयोगी) केवल शरीर-सम्बन्धी कर्म करता हुआ भी पापको प्राप्त नहीं होता।
व्याख्या-
केवल शरीर-निर्वाहके लिये जो कर्म किये जायँ, उनसे यदि कोई पाप बन भी जाय तो वह लगता नहीं। परन्तु जो मनुष्य भोग और संग्रहके लिये कर्म करता है, वह पापसे बच
नहीं सकता।
यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः । समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ॥ २२ ॥
(जो कर्मयोगी फलकी इच्छाके बिना) अपने-आप जो कुछ मिल जाय, उसमें सन्तुष्ट रहता है और जो ईर्ष्यासे रहित, द्वन्द्वोंसे रहित तथा सिद्धि और असिद्धिमें सम है, वह कर्म करते हुए भी उससे नहीं बँधता ।
गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः । यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ॥ २३ ॥
जिसकी आसक्ति सर्वथा मिट गयी है, जो मुक्त हो गया है, जिसकी बुद्धि स्वरूपके ज्ञानमें स्थित है, ऐसे केवल यज्ञके लिये कर्म करनेवाले मनुष्यके सम्पूर्ण कर्म नष्ट हो जाते हैं।
व्याख्या –
निष्कामभावपूर्वक केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करना 'यज्ञार्थ कर्म' है। यज्ञार्थ कर्म करनेवाले कर्मयोगीके सम्पूर्ण कर्म विलीन हो जाते हैं और उसे अपने स्वतः स्वाभाविक असंग स्वरूपका अनुभव हो जाता है।
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् । ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥ २४ ॥
जिस यज्ञमें अर्पण अर्थात् जिससे अर्पण किया जाय, वे स्रुक् आदि पात्र भी ब्रह्म है, हव्य पदार्थ (तिल, जौ, घी आदि) भी ब्रह्म है और ब्रह्मरूप कर्ताके द्वारा ब्रह्मरूप अग्निमें आहुति देनारूप क्रिया भी ब्रह्म है, (ऐसे यज्ञको करनेवाले) जिस मनुष्यकी ब्रह्ममें ही कर्म-समाधि हो गयी है, उसके द्वारा प्राप्त करनेयोग्य (फल भी) ब्रह्म ही है।
व्याख्या-
अब भगवान् अपनी प्राप्तिके लिये भिन्न-भिन्न साधनोंका 'यज्ञ' रूपसे वर्णन आरम्भ करते हैं। संसारकी सत्ता विद्यमान है ही नहीं (गीता २ | १६) । एक ब्रह्मके सिवाय कुछ नहीं है। संसारमें जो कर्ता, करण, कर्म और पदार्थ दिखायी देते हैं, वे सब ब्रह्मरूप ही हैं-ऐसा अनुभव करना 'ब्रह्मयज्ञ' है।
दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते। ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति ॥ २५ ॥
अन्य योगीलोग दैव (भगवदर्पणरूप) यज्ञका ही अनुष्ठान करते हैं और दूसरे योगीलोग ब्रह्मरूप अग्निमें (विचाररूप) यज्ञके द्वारा ही (जीवात्मारूप) यज्ञका हवन करते हैं।
व्याख्या-
सम्पूर्ण क्रियाओं और पदार्थोंको अपना और अपने लिये न मानकर केवल भगवान्का और भगवान्के लिये ही मानना 'भगवदर्पणरूप यज्ञ' है। परमात्माकी सत्तामें अपनी सत्ता मिला देना अर्थात् 'मैं' पनको मिटा देना 'अभिन्नतारूप यज्ञ' है।
श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति । शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ॥ २६ ॥
अन्य योगीलोग श्रोत्रादि समस्त इन्द्रियोंका संयमरूप अग्नियोंमें हवन किया करते हैं और दूसरे योगीलोग शब्दादि विषयोंका इन्द्रियरूप अग्नियोंमें हवन किया करते हैं। ।
व्याख्या-
एकान्तकालमें अपनी इन्द्रियोंको भोगोंमें न लगने देना 'संयमरूप यज्ञ' है। व्यवहारकालमें इन्द्रियोंके अपने विषयों में प्रवृत्त होनेपर उनमें राग-द्वेष न करना 'विषयहवनरूप यज्ञ' है।
हवन तभी होगा, जब विषय नहीं रहेंगे। कारण कि हवन तभी होता है, जब हव्य पदार्थ नहीं रहता। जबतक हव्य पदार्थकी सत्ता रहती है, तबतक हवन नहीं होता।
सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे । आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते ॥ २७ ॥
अन्य योगीलोग सम्पूर्ण इन्द्रियोंकी क्रियाओंको और प्राणोंकी क्रियाओंको ज्ञानसे प्रकाशित आत्मसंयम योग (समाधियोग)- )-रूप अग्निमें हवन किया करते हैं।
व्याख्या-
मन-बुद्धिसहित सम्पूर्ण इन्द्रियों और प्राणोंकी क्रियाओंको रोककर समाधिमें स्थित हो जाना 'समाधिरूप यज्ञ' है।
द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे ।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ॥ २८ ॥
दूसरे कितने ही तीक्ष्ण व्रत करनेवाले प्रयत्नशील साधक द्रव्यमय यज्ञ करनेवाले हैं और कितने ही तपोयज्ञ करनेवाले हैं और दूसरे कितने ही योगयज्ञ करनेवाले हैं तथा कितने ही स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ करनेवाले हैं।
व्याख्या -
मिली हुई वस्तुओंको निष्कामभावसे दूसरोंकी सेवामें 'लगाना 'द्रव्ययज्ञ' है। स्वधर्मपालनमें आनेवाली कठिनाइयोंको प्रसन्नतासे सह लेना 'तपोयज्ञ' है। कर्मोंकी सिद्धि-असिद्धिमें तथा अनुकूल या प्रतिकूल फलकी प्राप्तिमें सम रहना 'योगयज्ञ' है। सत्-शास्त्रोंका अध्ययन-मनन, नामजप आदि करना 'स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ' है।
अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे । प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः ॥ २९ ॥
अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति । सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः ॥ ३० ॥
दूसरे कितने ही प्राणायामके परायण हुए योगीलोग अपानमें प्राणका (पूरक करके) प्राण और अपानकी गति रोककर (कुम्भक करके), फिर प्राणमें अपानका हवन (रेचक) करते हैं; तथा अन्य कितने ही नियमित आहार करनेवाले प्राणोंका प्राणोंमें हवन किया करते हैं। ये सभी (साधक) यज्ञोंद्वारा पापोंका नाश करनेवाले और यज्ञोंको जाननेवाले हैं।
व्याख्या-
पूरक, कुम्भक और रेचकपूर्वक प्राणायाम करना 'प्राणायामरूप यज्ञ' है। प्राण अपानको अपने-अपने स्थानपर रोक देना 'स्तम्भवृत्ति (चतुर्थ) प्राणायामरूप यज्ञ है।
यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम् । नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम ॥ ३१ ॥
हे कुरुवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! यज्ञसे बचे हुए अमृतका अनुभव करनेवाले सनातन परब्रह्म परमात्माको प्राप्त होते हैं। यज्ञ न करनेवाले मनुष्यके लिये यह मनुष्यलोक भी सुखदायक नहीं है, फिर परलोक कैसे सुखदायक होगा?
एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे । कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ॥ ३२ ॥
इस प्रकार और भी बहुत तरहके यज्ञ वेदकी वाणीमें विस्तारसे कहे गये हैं। उन सब यज्ञोंको तू कर्मजन्य जान । इस प्रकार जानकर (यज्ञ करनेसे) तू कर्मबन्धनसे मुक्त हो जायगा।
व्याख्या –
जिसने कर्म करते हुए भी उससे निर्लिप्त (कर्तृत्व फलेच्छारहित) रहनेकी विद्याको जान लिया है, वह कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाता है।
श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप ।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥ ३३ ॥
हे परन्तप अर्जुन! द्रव्यमय यज्ञसे ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है। सम्पूर्ण कर्म और पदार्थ ज्ञान (तत्त्वज्ञान) में समाप्त (लीन) हो जाते हैं।
व्याख्या –
पहले कहे गये बारह यज्ञ 'द्रव्यमय यज्ञ' हैं। उन सबकी अपेक्षा आगे कहा जानेवाला 'ज्ञानयज्ञ' श्रेष्ठ है; क्योंकि ज्ञान होनेपर सम्पूर्ण कर्मों और पदार्थोंसे सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है। द्रव्यमय यज्ञमें क्रिया तथा पदार्थकी मुख्यता है और ज्ञानयज्ञमें विवेक-विचारकी मुख्यता है।
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया । उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥ ३४ ॥
उस तत्त्वज्ञानको (तत्त्वदर्शी ज्ञानी महापुरुषोंके पास जाकर) समझ। उनको साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करनेसे, उनकी सेवा करनेसे और सरलतापूर्वक प्रश्न करनेसे वे तत्त्वदर्शी (अनुभवी) ज्ञानी (शास्त्रज्ञ) महापुरुष तुझे उस तत्त्वज्ञानका उपदेश देंगे।
व्याख्या –
तत्त्वज्ञान प्राप्त करनेकी प्रचलित प्रणालीका वर्णन करते हुए भगवान् मानो यह कहना चाहते हैं कि केवल गुरु बनानेसे ज्ञानकी प्राप्ति नहीं होती और केवल शिष्य बनानेसे गुरुका कर्तव्य पूरा नहीं होता। यदि कोई अनुभवी महापुरुषके पास जाकर उन्हें प्रणाम करे अर्थात् अपने-आपको उनके समर्पित कर दे, उनकी आज्ञाके अनुसार काम करे और उनके सामने अपनी जिज्ञासा प्रकट करे तो वे गुरु-शिष्यका सम्बन्ध जोड़े बिना तत्त्वज्ञानका उपदेश दे देंगे।
जिससे तत्त्वज्ञानका उपदेश लिया जाय, उस महापुरुषका अनुभवी और शास्त्रज्ञ होना आवश्यक है। यदि वह अनुभवी तो हो पर शास्त्रज्ञ नहीं हो तो जिज्ञासुकी अनेक शंकाओंका समुचित समाधान नहीं कर पायेगा। यदि वह शास्त्रज्ञ तो हो, पर अनुभवी नहीं हो तो उसके वचन वैसे ठोस एवं प्रभावशाली नहीं होंगे, जिनसे जिज्ञासुको बोध हो जाय।
अनुभवी और शास्त्रज्ञ - इन दोनोंमें भी महापुरुषका अनुभवी होना मुख्य है। अनुभवी महापुरुषके हृदयमें शास्त्र स्वतः प्रकट होते हैं। अनुभवी सन्तोंकी वाणीसे ही शास्त्र बनते हैं। उनकी वाणी स्वतः शास्त्रके अनुकूल होती है।
यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव । येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ॥ ३५ ॥
जिस (तत्त्वज्ञान) का अनुभव करनेके बाद तू फिर इस प्रकार मोहको नहीं प्राप्त होगा और हे अर्जुन ! जिस (तत्त्वज्ञान)-से तू सम्पूर्ण प्राणियोंको नि:शेष भावसे पहले अपनेमें और उसके बाद मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मामें देखेगा।
व्याख्या –
तत्त्वज्ञान होनेपर फिर मोह नहीं होता; क्योंकि वास्तवमें मोहकी सत्ता है ही नहीं- 'नासतो विद्यते भावः' (गीता २ । १६) । इसलिये तत्त्वज्ञान एक ही बार होता है और सदाके लिये होता है। जैसे, पृथ्वीपर दिनके बाद रात होती है, रातके बाद दिन होता है; परन्तु सूर्यमें रात आती ही नहीं। वहाँ नित्य-निरन्तर दिनसे भी विलक्षण प्रकाश रहता है। ऐसे ही तत्त्वज्ञानरूप सूर्यमें मोहरूप अन्धकारका प्रवेश कभी हुआ ही नहीं, है ही नहीं, होगा ही नहीं, हो सकता ही नहीं। मोहकी सत्ता जीवकी दृष्टिमें है।
परमात्माके अन्तर्गत जीव है—'ममैवांशो जीवलोके' (गीता १५।७) और जीवके अन्तर्गत जगत् है- 'ययेदं धार्यते जगत्' (गीता ७ । ५ ) । इसलिये साधक पहले जगत्को अपनेमें देखता है— 'द्रक्ष्यस्यात्मनि', फिर अपनेको परमात्मामें देखता है—'अथो मयि'। जगत्को अपनेमें देखनेसे अहम्की सूक्ष्म सत्ता रहती है। यह सूक्ष्म अहम् जन्म-मरण देनेवाला तो नहीं होता, पर दार्शनिक मतभेद करानेवाला होता है। अपनेको परमात्मामें देखनेसे अहम्का सर्वथा नाश हो जाता है और एक चिन्मय सत्तामात्रके सिवाय कुछ नहीं रहता।
अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः । सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ॥ ३६॥
अगर तू सब पापियोंसे भी अधिक पापी है तो भी तू ज्ञानरूपी नौकाके द्वारा निःसन्देह सम्पूर्ण पाप समुद्रसे अच्छी तरह तर जायगा।
व्याख्या-
संसारमात्रमें जितने पापी हैं, उन सब पापियोंमें भी जो सबसे अधिक पापी है, ऐसे महापापीको भी ज्ञान प्राप्त हो सकता है! इसलिये किसी भी मनुष्यको अपने कल्याणके विषय में निराश नहीं होना चाहिये। मनुष्यमात्र ज्ञानप्राप्तिका अधिकारी है।
ज्ञानकी प्राप्तिमें पाप बाधक नहीं हैं, प्रत्युत नाशवान्की कामना बाधक है (गीता ३ । ३७ - ४१) ।
दो विभाग हैं- जड़ और चेतन। ये दोनों विभाग अन्धकार और प्रकाशकी तरह परस्पर सर्वथा असम्बद्ध हैं। सम्पूर्ण क्रियाएँ जड़ विभागमें ही होती हैं। चेतन-विभागमें कभी किंचिन्मात्र भी कोई क्रिया नहीं होती। सम्पूर्ण पाप जड़-विभागमें ही हैं, चेतन-विभागमें नहीं। जड़ और चेतनके विभागको अलग-अलग जानना ही ज्ञान है। इस ज्ञानरूपी अग्निसे सम्पूर्ण पाप सर्वथा नष्ट हो जाते हैं।
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन। ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ॥ ३७॥
हे अर्जुन! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनोंको सर्वथा भस्म कर देती है, ऐसे ही ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मोंको सर्वथा भस्म कर देती है ।
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते। तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥ ३८ ॥
इस मनुष्यलोकमें ज्ञानके समान पवित्र करनेवाला निःसन्देह दूसरा कोई साधन नहीं है। जिसका योग भलीभाँति सिद्ध हो गया है, (वह कर्मयोगी) उस तत्त्वज्ञानको अवश्य ही स्वयं अपने-आपमें पा लेता है।
व्याख्या-
जिस तत्त्वज्ञानको पानेके लिये कर्मोंका त्याग करके अनुभवी और शास्त्रज्ञ महापुरुषकी शरणमें जाना पड़ता है (गीता (४३४), वहीं तत्त्वज्ञान कर्मयोगीको सब कर्म करते ह हुए अपने आपमें ही प्राप्त हो जाता है। तत्त्वज्ञानके लिये उसे कहीं जाना नहीं पड़ता, कोई दूसरा साधन नहीं करना पड़ता।
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः । ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥ ३९ ॥
जो जितेन्द्रिय तथा साधन-परायण है, ऐसा श्रद्धावान् मनुष्य ज्ञानको प्राप्त होता है और ज्ञानको प्राप्त होकर वह तत्काल परम शान्तिको प्राप्त हो जाता है।
व्याख्या -
जिसकी इन्द्रियाँ वशमें होती हैं, वही साधन-परायण होता है। जो साधन-परायण होता है, वही पूर्ण श्रद्धावान् होता है। ऐसे पूर्ण श्रद्धावान् साधकको ज्ञानकी प्राप्ति तत्काल हो जाती है। अतः ज्ञानकी प्राप्तिमें वक्तापर तथा सिद्धान्तपर श्रद्धा विश्वास मुख्य कारण है।
अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति । नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥ ४० ॥
विवेकहीन और श्रद्धारहित संशयात्मा मनुष्यका पतन हो जाता है। ऐसे संशयात्मा मनुष्यके लिये न तो यह लोक ( हितकारक) है, न परलोक (हितकारक) है और न सुख ही है ।
व्याख्या -
विवेक और श्रद्धाकी आवश्यकता सभी साधनोंमें है। संशयात्मा मनुष्यमें विवेक और श्रद्धा नहीं होते अर्थात् न तो वह खुद जानता है और न दूसरेकी बात है। ऐसे मनुष्यका पारमार्थिक मार्ग पतन हो जाता है। उसका यह लोक भी बिगड़ जाता है और परलोक भी।
योगसन्न्यस्तकर्माणं ज्ञानसच्छिन्नसंशयम्। आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ।। ४१ ।।
हे धनंजय! योग (समता) के द्वारा जिसका सम्पूर्ण कर्मोंसे सम्बन्ध विच्छेद हो गया है और विवेकज्ञान के द्वारा जिसके सम्पूर्ण संशयोंका नाश हो गया है, ऐसे स्वरूप परायण मनुष्यको कर्म नहीं बाँधते।
तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः । छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ॥ ४२ ॥
इसलिये हे भरतवंशी अर्जुन! हृदयमें स्थित इस अज्ञानसे उत्पन्न अपने संशयका ज्ञानरूप तलवारसे छेदन करके योग (समता) में स्थित हो जा और (युद्धके लिये) खड़ा हो जा।
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