Gita-pehla-adhyay

गीता-प्रबोधनी अथ प्रथमोअध्याय
पहला अध्याय


~धृतराष्ट्र उवाच~


धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः । मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ॥ १॥
धृतराष्ट्र बोले- 

हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्रमें इकट्ठे हुए युद्धकी इच्छावाले मेरे और पाण्डुके पुत्रोंने भी क्या किया ?

व्याख्या-

 यह हिन्दू संस्कृतिकी विलक्षणता है कि इसमें प्रत्येक कार्य अपने कल्याणका उद्देश्य सामने रखकर ही करनेकी प्रेरणा की गयी है। इसलिये युद्ध जैसा घोर कर्म भी 'धर्मक्षेत्र' (धर्मभूमि) एवं 'कुरुक्षेत्र' (तीर्थभूमि) में किया गया है, जिससे युद्धमें मरनेवालोंका भी कल्याण हो जाय।

भगवान्की ओरसे सृष्टिमें कोई भी ( मेरे और तेरेका ) विभाग नहीं किया गया है। सम्पूर्ण सृष्टि पांचभौतिक है। सभी मनुष्य समान हैं और उन्हें आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी भी समानरूपसे मिले हुए हैं। परन्तु मनुष्य मोहके वशीभूत होकर उनमें विभाग कर लेता है कि ये मनुष्य, घर, गाँव, प्रान्त, देश, आकाश, जल आदि मेरे हैं और ये तेरे हैं। इस 'मेरे' और 'तेरे' के भेदसे ही सम्पूर्ण संघर्ष उत्पन्न होते हैं। महाभारतका युद्ध भी 'मामकाः (मेरे पुत्र) और 'पाण्डवाः' (पाण्डुके पुत्र ) – इस भेदके कारण आरम्भ हुआ है।
Darthrastra-sanjay-sanvad
Darthrastra sanjay sanvad
 

~सञ्जय उवाच~


दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा । आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत् ॥ २ ॥
संजय बोले-

उस समय वज्रव्यूहसे खड़ी हुई पाण्डव सेनाको देखकर और द्रोणाचार्यके पास जाकर राजा दुर्योधन यह वचन बोला। पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् ।

व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ।।३॥


हे आचार्य! आपके बुद्धिमान् शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न के द्वारा व्यूहरचनासे खड़ी की हुई पाण्डवोंकी इस बड़ी भारी सेनाको देखिये।

अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि । युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ॥ ४ ॥

 
धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान्। पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङ्गवः ॥ ५॥ 


युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान्। सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः ॥ ६॥

यहाँ (पाण्डवोंकी सेनामें) बड़े-बड़े शूरवीर हैं, जिनके बहुत बड़े-बड़े धनुष हैं तथा जो युद्धमें भीम और अर्जुनके समान हैं। उनमें युयुधान (सात्यकि), राजा विराट और महारथी द्रुपद भी हैं। धृष्टकेतु और चेकितान तथा पराक्रमी काशिराज भी हैं। पुरुजित् और कुन्तिभोज-ये (दोनों भाई) तथा मनुष्योंमें श्रेष्ठ शैब्य भी हैं। पराक्रमी युधामन्यु और पराक्रमी उत्तमौजा भी हैं। सुभद्रापुत्र अभिमन्यु और द्रौपदीके पाँचों पुत्र भी हैं। ये सब-के-सब महारथी हैं। 

अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम। नायका मम सैन्यस्य सञ्ज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते ॥ ७ ॥


हे द्विजोत्तम! हमारे पक्षमें भी जो मुख्य हैं, उनपर भी आप ध्यान दीजिये। आपको याद दिलानेके लिये मेरी सेनाके जो नायक हैं, उनको मैं कहता हूँ।

भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः । अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च ॥ ८॥


आप (द्रोणाचार्य) और पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्रामविजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्तका पुत्र भूरिश्रवा ।


अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः । नानाशस्त्र प्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः ॥ ९॥


इनके अतिरिक्त बहुत-से शूरवीर हैं, जिन्होंने मेरे लिये अपने जीनेकी इच्छाका भी त्याग कर दिया है, और जो अनेक प्रकारके अस्त्र-शस्त्रों को चलानेवाले हैं तथा जो सब-के-सब युद्धकलामें अत्यन्त चतुर हैं।

अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्। पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् ॥ १०॥


(द्रोणाचार्यको चुप देखकर दुर्योधनके मनमें विचार हुआ कि वास्तवमें) हमारी वह सेना (पाण्डवोंपर विजय करनेमें) अपर्याप्त है, असमर्थ है; क्योंकि उसके संरक्षक (उभय पक्षपाती) भीष्म हैं। परन्तु इन पाण्डवोंकी यह सेना (हमपर विजय करनेमें) पर्याप्त है, समर्थ है; क्योंकि इसके संरक्षक (निजसेना पक्षपाती) भीमसेन हैं।

व्याख्या- 

इस श्लोकसे ऐसा प्रतीत होता है कि दुर्योधन पाण्डवोंसे सन्धि करना चाहता है। परन्तु वास्तव में ऐसी बात है नहीं। दुर्योधनने कहा है

जानामि धर्म न च मे प्रवृत्तिर्जानाम्यधर्म न च मे निवृत्तिः । केनापि देवेन हृदि स्थितेन यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि ॥ (गर्गसंहिता, अश्वमेध० ५०३६)

'मैं धर्मको जानता हूँ, पर उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं होती और अधर्मको भी जानता हूँ, पर उससे मेरी निवृत्ति नहीं होती। मेरे हृदयमें स्थित कोई देव है, जो मुझसे जैसा करवाता है, वैसा ही मैं करता हूँ।'

दुर्योधन हृदयमें स्थित जिस देवकी बात कहता है, वह वास्तव में'कामना' ही है। जब वह कामनाके वशीभूत होकर उसके अनुसार चलता है तो फिर वह पाण्डवोंसे सन्धि कैसे कर सकता है ? पाण्डव मनके अनुसार नहीं चलते थे, प्रत्युत धर्मके तथा भगवान्की आज्ञाके अनुसार चलते थे। इसलिये जब गन्धर्वोने दुर्योधनको बन्दी बना लिया था, तब युधिष्ठिरने ही उसे छुड़वाया। वहाँ युधिष्ठिरके वचन हैं

परैः परिभवे प्राप्ते वयं पञ्चोत्तरं शतम् । परस्परविरोधे तु वयं पञ्च शतं तु ते ॥
(महाभारत, वन० २४३ )


 'दूसरोंके द्वारा पराभव प्राप्त होनेपर उसका सामना करनेके लिये हमलोग एक सौ पाँच भाई हैं। आपसमें विरोध होनेपर ही हम पाँच भाई अलग हैं और वे सौ भाई अलग हैं।'
कामना मनुष्योंको पापोंमें लगाती है (गीता ३ । ३६-३७); परन्तु धर्म मनुष्योंको पुण्यकर्मों में लगाता है ।

अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः । भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि ॥ ११ ॥


दुर्योधन बाह्यदृष्टिसे अपनी सेनाके महारथियोंसे बोला आप सब-के-सब लोग सभी मोर्चोंपर अपनी-अपनी जगह दृढ़तासे स्थित रहते हुए निश्चितरूपसे पितामह भीष्मकी ही चारों ओरसे रक्षा करें।

तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः । सिंहनादं विनद्योच्चैः शङ्खं दध्मौ प्रतापवान् ॥ १२ ॥


उस (दुर्योधन) के हृदयमें हर्ष उत्पन्न करते हुए कौरवोंमें वृद्ध प्रभावशाली पितामह भीष्मने सिंहके समान गरजकर जोरसे शंख बजाया। 

ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः ।सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत् ॥ १३ ॥ 


उसके बाद शंख और भेरी (नगाड़े) तथा ढोल, मृदंग और नरसिंघे बाजे एक साथ ही बज उठे। उनका वह शब्द बड़ा भयंकर हुआ।

ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ । माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः ॥ १४ ॥


उसके बाद सफेद घोड़ोंसे युक्त महान् रथपर बैठे हुए लक्ष्मीपति भगवान् श्रीकृष्ण और पाण्डुपुत्र अर्जुनने भी दिव्य शंखोंको बड़े जोरसे बजाया। 

पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः । पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्खं भीमकर्मा वृकोदरः ॥ १५॥


अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्णने पांचजन्य नामक तथा धनंजय अर्जुनने देवदत्त नामक शंख बजाया और भयानक कर्म करनेवाले वृकोदर भीमने पौण्ड्र नामक महाशंख बजाया। 

अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ।
नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ ॥ १६ ॥ 


कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिरने अनन्तविजय नामक शंखबजाया तथा नकुल और सहदेवने सुघोष और मणिपुष्पक नामक शंख बजाये।

काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः । धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः ॥ १७ ।। 

द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते । सौभद्रश्च महाबाहुः शङ्खान्दध्मुः पृथक्पृथक् ॥ १८ ।।

हे राजन् ! श्रेष्ठ धनुषवाले काशिराज और महारथी शिखण्डी तथा धृष्टद्युम्न एवं राजा विराट और अजेय सात्यकि, राजा द्रुपद और द्रौपदीके पाँचों पुत्र तथा लम्बी लम्बी भुजाओंवाले सुभद्रापुत्र अभिमन्यु - इन सभीने सब ओरसे अलग-अलग (अपने-अपने) शंख बजाये। 

स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्। नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन् ॥ १९॥

और (पाण्डवसेनाके शंखोंके) उस भयंकर शब्दने आकाश और पृथ्वीको भी गँजाते हुए अन्यायपूर्वक राज्य हड़पनेवाले दुर्योधन आदिके हृदय विदीर्ण कर दिये। 

अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः । प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः ॥ २० ॥ हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते । 

हे महीपते धृतराष्ट्र ! अब शस्त्र चलनेकी तैयारी हो ही रही थी कि उस समय अन्यायपूर्वक राज्यको धारण करनेवाले राजाओं और उनके साथियोंको व्यवस्थितरूपसे सामने खड़े हुए देखकर कपिध्वज पाण्डुपुत्र अर्जुनने अपना गाण्डीव उठा लिया और अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्णसे यह वचन बोलें।


~अर्जुन उवाच~

सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ॥ २१ ॥ 
यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान् । कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिरणसमुद्यमे ॥ २२ ॥

अर्जुन बोले-
 हे अच्युत! दोनों सेनाओंके मध्य में मेरे रथको (आप तबतक) खड़ा कीजिये, जबतक मैं (युद्धक्षेत्र में) खड़े हुए इन युद्धकी इच्छावालोंको देख न लूँ कि इस युद्धरूप उद्योगमें मुझे किन-किनके साथ युद्ध करना योग्य है।

योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः । धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः ॥ २३ ॥

दुष्टबुद्धि दुर्योधनका युद्धमें प्रिय करनेकी इच्छावाले जो ये राजालोग इस सेनामें आये हुए हैं, युद्ध करनेको उतावले हुए (इन सबको) मैं देख लूँ।

~सञ्जय उवाच~

एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत । सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ॥ २४ ॥

भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् । उवाच पार्थ पश्यैतान् समवेतान्कुरूनिति ॥ २५ ॥

संजय बोले-
हे भरतवंशी राजन्! निद्रा-विजयी अर्जुनके द्वारा इस तरह कहनेपर अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्णने दोनों के मध्यभागमें पितामह भीष्म और आचार्य द्रोणके सेनाओं सामने तथा सम्पूर्ण राजाओंके सामने श्रेष्ठ रथको खड़ा करके इस प्रकार कहा कि 'हे पार्थ! इन इकट्ठे हुए कुरुवंशियोंको देख'।

व्याख्या –
'युद्धके लिये एकत्र हुए इन कुरुवंशियोंको देख' ऐसा कहनेमें भगवान्‌की यह गूढ़ाभिसन्धि थी कि इन कुरुवंशियोंको देखकर अर्जुनके भीतर छिपा कौटुम्बिक ममतायुक्त मोह जाग्रत् हो जाय और मोह जाग्रत् होनेसे अर्जुन जिज्ञासु बन जाय, जिससे अर्जुनका तथा उनके निमित्तसे भावी मनुष्योंका भी मोहनाश करनेके लिये गीताका महान् उपदेश दिया जा सके। तत्रापश्यत्स्थितान् पार्थः पितॄनथ पितामहान् । 

आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा ॥ २६ ॥ 
श्वशुरान् सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि ।

उसके बाद पृथानन्दन अर्जुनने उन दोनों ही सेनाओं में स्थित पिताओंको, पितामहोंको, आचार्योंको, मामाओंको, भाइयोंको, पुत्रोंको, पौत्रोंको तथा मित्रोंको, ससुरोंको औ सुहृदोंको भी देखा।।

तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान् ॥ २७ ॥ 
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत्।

अपनी-अपनी जगहपर स्थित उन सम्पूर्ण बान्धवों को देखकर वे कुन्तीनन्दन अर्जुन अत्यन्त कायरतासे युक्त होकर विषाद करते हुए ऐसा बोले।
Arjun-ko-updesh
Arjun ko updesh

~अर्जुन उवाच~


दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् ॥ २८ ॥ 

सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति । वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते ॥ २९ ॥ 

गाण्डीवं स्त्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते । न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ॥ ३० ॥

अर्जुन बोले- 
हे कृष्ण ! युद्धकी इच्छावाले इस कुटुम्ब समुदायको अपने सामने उपस्थित देखकर मेरे अंग शिथिल हो रहे हैं और मुख सूख रहा है तथा मेरे शरीरमें कँपकँपी आ रही है एवं रोंगटे खड़े हो रहे हैं । हाथसे गाण्डीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी जल रही है। मेरा मन भ्रमित सा हो रहा है और मैं खड़े रहनेमें भी असमर्थ हो रहा हूँ।

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव । न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ॥ ३१ ॥
हे केशव! मैं लक्षणों (शकुनों) को भी विपरीत देख रहा हूँ और युद्धमें स्वजनोंको मारकर श्रेय (लाभ) भी नहीं देख रहा हूँ। 

न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च । किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा ॥ ३२ ॥

हे कृष्ण! मैं न तो विजय चाहता हूँ, न राज्य चाहता हूँ और न सुखोंको ही चाहता हूँ। हे गोविन्द ! हमलोगोंको राज्यसे क्या लाभ ? भोगोंसे क्या लाभ ? अथवा जीनेसे भी क्या लाभ ? 

येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च । त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ॥ ३३ ॥

जिनके लिये हमारी राज्य, भोग और सुखकी इच्छा है, वे ही ये सब अपने प्राणोंकी और धनकी आशाका त्याग करके युद्धमें खड़े हैं। 

आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः । मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा ॥ ३४ ॥ 

एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन । अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ॥ ३५॥

आचार्य, पिता, पुत्र और उसी प्रकार पितामह, मामा, ससुर, पौत्र, साले तथा अन्य जितने भी सम्बन्धी हैं, मुझपर प्रहार करनेपर भी मैं इनको मारना नहीं चाहता और हे मधुसूदन! मुझे त्रिलोकीका राज्य मिलता हो तो भी मैं इनको मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वीके लिये तो मैं इनको मारूँ ही क्या? 
निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन । पापमेवाश्रयेदस्मान् हत्वैतानाततायिनः ॥ ३६॥

हे जनार्दन ! इन धृतराष्ट्र-सम्बन्धियोंको मा हमलोगोंको क्या प्रसन्नता होगी? इन आततायियोंको मारनेसे तो हमें पाप ही लगेगा। 

तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान् स्वबान्धवान् । स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ॥ ३७॥

इसलिये अपने बान्धव इन धृतराष्ट्र सम्बन्धियोंको मारनेके लिये हम योग्य नहीं हैं; क्योंकि हे माधव ! अपने कुटुम्बियोंको मारकर हम कैसे सुखी होंगे? 

यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः । कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ॥ ३८ ॥ 

कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम् । कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ॥ ३९॥

यद्यपि लोभके कारण जिनका विवेक विचार लुप्त हो गया है, ऐसे ये (दुर्योधन आदि) कुलका नाश करनेसे होनेवाले दोषको और मित्रों के साथ द्वेष करनेसे होनेवाले पापको नहीं देखते, तो भी हे जनार्दन ! कुलका नाश करनेसे होनेवाले दोषको ठीक-ठीक जाननेवाले हमलोग इस पापसे निवृत्त होनेका विचार क्यों न करें ?

कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः । धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ॥ ४० ॥

कुलका क्षय होनेपर सदासे चलते आये कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं और धर्मका नाश होनेपर बचे हुए सम्पूर्ण कुलको अधर्म दबा लेता है। 

अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः । स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसङ्करः ॥ ४१ ।।

हे कृष्ण! अधर्मके अधिक बढ़ जानेसे कुलकी स्त्रियाँ दूषित हो जाती हैं, और हे वार्ष्णेय! स्त्रियोंके दूषित होनेपर वर्णसंकर पैदा हो जाते हैं।

सङ्करो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च । पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः ॥ ४२ ॥

वर्णसंकर कुलघातियाँको और कुलको नरकमें ले जानेवाला ही होता है। श्राद्ध और तर्पण न मिलने से इन कुलघातियोंके पितर भी अपने स्थानसे) गिर जाते हैं।

दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसङ्करकारकैः । उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः ॥ ४३॥

इन वर्णसंकर पैदा करनेवाले दोषोंसे कुलघातियों के सदासे चलते आये कुलधर्म और जातिधर्म नष्ट हो जाते हैं।

उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन । नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ॥ ४४ ॥

हे जनार्दन ! जिनके कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं, उन मनुष्योंका बहुत कालतक नरकोंमें वास होता है, ऐसा हम सुनते आये हैं।

अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् । यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः ॥ ४५ ॥

यह बड़े आश्चर्य और खेदकी बात है कि हमलोग बड़ा भारी पाप करनेका निश्चय कर बैठे हैं, जो कि राज्य और सुखके लोभसे अपने स्वजनोंको मारनेके लिये तैयार हो गये हैं।

यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः । धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् ॥ ४६॥ 

अगर ये हाथोंमें शस्त्र-अस्त्र लिये हुए धृतराष्ट्रके पक्षपाती लोग युद्धभूमिमें सामना न करनेवाले तथा शस्त्ररहित मुझे मार भी दें तो वह मेरे लिये बड़ा ही हितकारक होगा।

~सञ्जय उवाच~

एवमुक्त्वार्जुनः सङ्ख्ये रथोपस्थ उपाविशत् । विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः ॥ ४७ ॥ 

संजय बोले- 
ऐसा कहकर शोकाकुल मनवाले अर्जुन बाणसहित धनुषका त्याग करके युद्धभूमिमें रथके मध्यभागमें बैठ गये ।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादेऽर्जुनविषादयोगो नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १॥