ॐ श्रीपरमात्मने नमः

अथ षष्ठोऽध्यायः
छठा अध्याय

श्रीभगवानुवाच-

अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः । स सन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ॥ १॥


श्रीभगवान् बोले- 
कर्मफलका आश्रय न लेकर जो कर्तव्य-कर्म करता है, वही संन्यासी तथा योगी है और केवल अग्निका त्याग करनेवाला संन्यासी नहीं होता तथा केवल क्रियाओंका त्याग करनेवाला योगी नहीं होता।

व्याख्या – 
संन्यासी अथवा योगी मनुष्य न तो अग्निसे बँधता है, न क्रियाओंसे ही बँधता है, प्रत्युत कर्मफलकी इच्छासे बँधता है—'फले सक्तो निबध्यते' (गीता ५ । १२ ) । अतः जिसने कर्मफलकी इच्छाका त्याग कर दिया है, वही सच्चा संन्यासी अथवा योगी है। कर्मफलकी आसक्तिका त्याग करनेसे परमशान्तिकी प्राप्ति हो जाती है—'त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्' (गीता १२ । १२ । अतः सच्चा त्यागी भी वही है, जिसने कर्मफलकी आसक्तिका त्याग कर दिया है – 'यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते' (गीता १८।११) ।

Krishna
श्री कृष्ण की लीला

यं सन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव । न ह्यसन्न्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन ॥ २ ॥


हे अर्जुन! लोग जिसको संन्यास- ऐसा कहते हैं, उसीको तुम योग समझो; क्योंकि संकल्पोंका त्याग किये बिना मनुष्य कोई-सा भी योगी नहीं हो सकता।

व्याख्या-
सांख्ययोग और कर्मयोग-दोनों साधन अलग अलग होनेपर भी संकल्पोंके त्यागमें एक हैं। जबतक मनुष्यके अन्तःकरणमें संसारकी सत्ता, महत्ता और अपनापन है, तबतक वह संकल्पोंका त्याग नहीं कर सकता। संकल्पोंका त्याग किये बिना मनुष्य ज्ञानयोगी, हठयोगी, ध्यानयोगी, कर्मयोगी, भक्तियोगी आदि कोई सा भी योगी नहीं होता, प्रत्युत भोगी होता है। 


आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते । योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ॥ ३ ॥


जो योग (समता) में आरूढ़ होना चाहता है, ऐसे मननशील योगीके लिये कर्तव्य-कर्म करना कारण कहा गया है और उसी योगारूढ़ मनुष्यका शम (शान्ति) परमात्मप्राप्तिमें कारण कहा गया है।

व्याख्या- 
निष्कामभावसे केवल दूसरेके लिये कर्म करनेसे करनेका वेग मिट जाता है। कर्म करनेका वेग मिटनेसे साधक योगारूढ़ अर्थात् समतामें स्थित हो जाता है। योगारूढ़ होनेपर एक शान्ति प्राप्त होती है। उस शान्तिका उपभोग न करनेसे परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है। शम (शान्ति ) का अर्थ है शान्त होना, चुप होना, कुछ न करना। जबतक हमारा सम्बन्ध 'करने' ( क्रिया) के साथ है, तबतक प्रकृतिके साथ सम्बन्ध है। जबतक प्रकृतिके साथ सम्बन्ध है, तबतक अशान्ति है, दुःख है, जन्म-मरणरूप बन्धन है। प्रकृतिके साथ सम्बन्ध 'न करने' से मिटेगा। कारण कि क्रिया और पदार्थ दोनों प्रकृतिमें हैं। चेतन तत्त्वमें न क्रिया है, न पदार्थ। इसलिये परमात्मप्राप्ति के लिये 'शम' अर्थात् कुछ न करना ही कारण है। हाँ, अगर हम इस शान्तिका उपभोग करेंगे तो परमात्माकी प्राप्ति नहीं होगी। 'मैं शान्त हूँ'- इस प्रकार शान्तिमें अहंकार लगानेसे और 'बड़ी शान्ति है' इस प्रकार शान्तिमें सन्तुष्ट होनेसे शान्तिका उपभोग हो जाता है। इसलिये शान्तिमें व्यक्तित्व न मिलाये, प्रत्युत ऐसा समझे कि शान्ति स्वतः है। शान्तिका उपभोग करनेसे शान्ति नहीं रहेगी, प्रत्युत चंचलता अथवा निद्रा आ जायगी। उपभोग न करनेसे शान्ति स्वतः रहेगी। किया और अभिमानके बिना जो स्वतः शान्ति होती है, वह 'योग' है। कारण कि उस शान्तिका कोई कर्ता अथवा भोक्ता नहीं है। जहाँ कर्ता अथवा भोक्ता होता है, वहाँ भोग होता है। भोग होनेपर संसार में स्थिति होती है।


यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते । सर्वसङ्कल्पसन्न्यासी योगारूढस्तदोच्यते ॥ ४॥


कारण कि जिस समय न इन्द्रियोंके भोगोंमें तथा न कर्मोंमें ही आसक्त होता है, उस समय वह सम्पूर्ण संकल्पोंका त्यागी मनुष्य योगारूढ़ कहा जाता है।

व्याख्या- 
संसारका स्वरूप है- पदार्थ और क्रिया मनुष्य योगारूढ़ (योगमें स्थित ) तभी होता है, जब उसकी पदार्थ और क्रियामें आसक्ति नहीं रहती। जबतक पदार्थ और क्रियाकी आसक्ति है, तबतक वह संसार (विषमता) में ही स्थित है।

प्रत्येक पदार्थका संयोग और वियोग होता है। प्रत्येक क्रियाका आरम्भ और अन्त होता है। प्रत्येक संकल्प उत्पन्न और नष्ट होता है। परन्तु स्वयं नित्य-निरन्तर ज्यों-का-त्यों रहता है। इसलिये जब साधक पदार्थ और क्रियाकी आसक्ति मिटा देता है तथा सम्पूर्ण संकल्पोंका त्याग कर देता है, तब वह योगारूढ़ हो जाता है।

उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥ ५॥


अपने द्वारा अपना उद्धार करे, अपना पतन न करे; क्योंकि आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है।

व्याख्या – 
गुरु बनना या बनाना गीताका सिद्धान्त नहीं है। वास्तवमें मनुष्य आप ही अपना गुरु है। इसलिये अपनेको हो उपदेश दे अर्थात् दूसरेमें कमी न देखकर अपनेमें ही कमी देखें और उसे मिटानेकी चेष्टा करे। भगवान् भी विद्यमान हैं, तत्त्वज्ञान भी विद्यमान है और हम भी विद्यमान हैं, फिर उद्धारमें देरी क्यों ? नाशवान् व्यक्ति, पदार्थ और क्रियामें आसक्तिके कारण ही उद्धारमें देरी हो रही है। इसे मिटानेकी जिम्मेवारी हमपर ही है; क्योंकि हमने ही आसक्ति की है।

पूर्वपक्ष– 
गुरु, सन्त और भगवान् भी तो मनुष्यका उद्धार करते हैं, ऐसा लोकमें देखा जाता है ?

उत्तरपक्ष- 
गुरु, सन्त और भगवान् भी मनुष्यका तभी उद्धार करते हैं, जब वह स्वयं उन्हें स्वीकार करता है अर्थात् उनपर श्रद्धा-विश्वास करता है, उनके सम्मुख होता है, उनकी शरण लेता है, उनकी आज्ञाका पालन करता है। गुरु, सन्त और भगवान्का कभी अभाव नहीं होता, पर अभीतक हमारा उद्धार नहीं हुआ तो इससे सिद्ध होता है कि हमने ही उन्हें स्वीकार नहीं किया। जिन्होंने उन्हें स्वीकार किया, उन्हींका उद्धार हुआ। अतः अपने उद्धार और पतनमें हम ही हेतु हुए।

बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः । अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ॥ ६॥


जिसने अपने-आपसे अपने-आपको जीत लिया है, उसके लिये आप ही अपना बन्धु है और जिसने अपने-आपको नहीं जीता है, ऐसे अनात्माका आत्मा ही शत्रुतामें शत्रुकी तरह बर्ताव करता है।

व्याख्या- 
शरीरको मैं, मेरा और मेरे लिये न मानना अपने साथ मित्रता करना है। शरीरको मैं, मेरा और मेरे लिये मानना अपने साथ शत्रुता करना है। आप ही अपना मित्र बनकर मनुष्य अपना जितना भला कर सकता है, उतना दूसरा कोई मित्र नहीं कर सकता। इसी प्रकार आप ही अपना शत्रु बनकर मनुष्य अपना जितना नुकसान कर सकता है, उतना दूसरा कोई शत्रु नहीं कर सकता।


जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः । शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः॥७॥ 


जिसने अपनेपर विजय कर ली है, उस शीत-उष्ण  अनुकूलता-प्रतिकूलता), सुख-दुःख तथा मान अपमानमें निर्विकार मनुष्यको परमात्मा नित्यप्राप्त हैं। ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः । युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः ॥ ८ ॥

जिसका अन्तःकरण ज्ञान-विज्ञानसे तृप्त है, जो कूटकी तरह निर्विकार है, जितेन्द्रिय है और मिट्टी, ढेले, पत्थर तथा स्वर्णमें समबुद्धिवाला है ऐसा योगी युक्त (योगारूढ़) कहा जाता है। 


सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ॥ ९ ॥


सुहृद्, मित्र, वैरी, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेष्य और सम्बन्धियोंमें तथा साधु-आचरण करनेवालों में और पाप-आचरण करनेवालोंमें भी समबुद्धिवाला मनुष्य श्रेष्ठ है।

व्याख्या- 
जिनसे व्यवहारमें एकता नहीं करनी चाहिये और एकता कर भी नहीं सकते, उन मिट्टीके ढेले, पत्थर और स्वर्णमें और सुहृद्, मित्र, वैरी, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेष्य, बन्धु, साधु तथा पापी व्यक्तियोंमें भी कर्मयोगी महापुरुषकी समबुद्धि रहती है। तात्पर्य है कि उसकी दृष्टि सब प्राणी पदार्थों में समरूपसे परिपूर्ण परमात्मतत्त्वपर ही रहती है। जैसे सोनेसे बने गहनोंको देखें तो उनमें बहुत अन्तर दीखता है, पर सोनेको देखें तो कोई अन्तर नहीं, एक सोना-ही-सोना है। इसी प्रकार सांसारिक प्राणी-पदार्थों को देखें तो उनमें बहुत बड़ा अन्तर है, पर तत्त्वसे देखें तो एक परमात्मा ही परमात्मा हैं।

योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः । एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ॥ १० ॥


भोगबुद्धिसे संग्रह न करनेवाला, इच्छारहित और अन्तःकरण तथा शरीरको वशमें रखनेवाला योगी अकेला एकान्तमें स्थित होकर मनको निरन्तर (परमात्मामें) लगाये।

व्याख्या– 
ध्यानयोगका अधिकारी वह है, जो अपने सुखभोगके लिये विभिन्न वस्तुओंका संग्रह नहीं करता, जिसके मनमें भोगोंकी कामना नहीं है और जिसका अन्तःकरण तथा शरीर उसके वश में है। तात्पर्य है कि ध्यानयोगके साधकका उद्देश्य केवल परमात्माको
प्राप्त करनेका हो, लौकिक सिद्धियोंको प्राप्त करनेका नहीं। पूर्वपक्ष- युद्धके समयमें अर्जुनको ध्यानयोगका उपदेश देनेका क्या औचित्य है ?

उत्तरपक्ष- 
अर्जुन पापसे डरते थे, युद्धसे नहीं। उन्हें युद्धसे अधिक अपने कल्याण (श्रेय) की चिन्ता थी (गीता २।७, ३।२, ५।१ ) । इसलिये कल्याणके जितने मुख्य साधन हैं, उन सबका भगवान् गीतामें वर्णन करते हैं। इसी कारण गीता मानवमात्रके कल्याणका मार्ग प्रशस्त करती है।


शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः । नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ॥ ११ ॥


शुद्ध भूमिपर, जिसपर (क्रमश:) कुश, मृगछाला और वस्त्र बिछे हैं, जो न अत्यन्त ऊँचा है और न अत्यन्त नीचा, ऐसे अपने आसनको स्थिर स्थापन करके।


तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः । उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ॥ १२ ॥ 


उस आसनपर बैठकर चित्त और इन्द्रियोंकी क्रियाओंको वशमें रखते हुए मनको एकाग्र करके अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये योगका अभ्यास करे। 


समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः । सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ॥ १३॥


काया, सिर और गलेको सीधे अचल धारण करके तथा दिशाओंको न देखकर केवल अपनी नासिकाके अग्रभागको देखते हुए स्थिर होकर बैठे। प्रशान्तात्मा विगतभीब्रह्मचारिव्रते स्थितः । मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ॥ १४ ॥

जिसका अन्तःकरण शान्त है, जो भयरहित है और जो ब्रह्मचारिव्रतमें स्थित है, ऐसा सावधान ध्यानयोगी मनका संयम करके मुझमें चित्त लगाता हुआ मेरे परायण होकर बैठे। 

व्याख्या - 
जिसका अन्तःकरण राग-द्वेषादि द्वन्द्वोंसे रहित है, जो शरीरमें मैं मेरापन न होनेसे भयरहित है और जो ब्रह्मचारीके नियमोंका पालन करता है, वही ध्यानयोगका अधिकारी है। ध्यानयोगी सावधानीपूर्वक मनको संसारसे हटाकर भगवान में लगाये। वह भगवान्‌के ही परायण हो अर्थात् भगवत्प्राप्तिके सिवाय उसका अन्य कोई उद्देश्य नहीं हो।


युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः । शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति ॥ १५ ॥


वशमें किये हुए मनवाला योगी मनको इस तरह सदा (परमात्मामें) लगाता हुआ मुझमें सम्यक् स्थिति वाली जो निर्वाणपरमा शान्ति है, उसको प्राप्त हो जाता है। नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः । न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ॥ १६॥

हे अर्जुन! यह योग न तो अधिक खानेवालेका और न बिलकुल न खानेवालेका तथा न अधिक सोनेवालेका और न बिलकुल न सोनेवालेका ही सिद्ध होता है ।


युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु । युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥ १७ ॥ 


दु:खोंका नाश करनेवाला योग तो यथायोग्य आहार और विहार करनेवालेका, कर्मोंमें यथायोग्य चेष्टा करनेवालेका तथा यथायोग्य सोने और जागनेवालेका ही सिद्ध होता है ।


यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते । निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा ॥ १८ ॥


वशमें किया हुआ चित्त जिस कालमें अपने स्वरूपमें ही स्थित हो जाता है और स्वयं सम्पूर्ण पदार्थोंसे नि:स्पृह हो जाता है, उस कालमें वह योगी -ऐसा कहा जाता है । 


यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता । योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ॥ १९ ॥


जैसे स्पन्दनरहित वायुके स्थानमें स्थित दीपककी लौ चेष्टारहित हो जाती है, योगका अभ्यास करते हुए वशमें किये हुए चित्तवाले योगीके चित्तकी वैसी ही उपमा कही गयी है।


यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया । यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ॥ २० ॥


योगका सेवन करनेसे जिस अवस्थामें निरुद्ध चित्त उपराम हो जाता है तथा जिस अवस्थामें स्वयं अपने आपसे अपने-आपको देखता हुआ अपने-आपमें ही सन्तुष्ट हो जाता है। व्याख्या-दूसरे अध्यायके पचपनवें श्लोकमें जिस तत्त्वकी प्राप्ति कर्मयोगसे बतायी थी, उसी तत्त्वकी प्राप्ति यहाँ ध्यानयोगसे बतायी गयी है। दोनों साधनोंका प्रापणीय तत्त्व एक होनेपर भी ध्यानयोगमें तत्त्वकी प्राप्ति कठिनतासे तथा विलम्बसे होती है और इसमें योगभ्रष्ट होनेकी भी सम्भावना रहती है (गीता ६। ४१-४४) । कारण कि ध्यानयोग करणसापेक्ष साधन है। 


सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् ।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः ॥ २१ ॥ 


जो सुख आत्यन्तिक, अतीन्द्रिय और बुद्धिग्राह्य है, उस सुखका जिस अवस्थामें अनुभव करता है और जिस सुखमें स्थित हुआ यह ध्यानयोगी तत्त्वसे फिर कभी विचलित नहीं होता।

व्याख्या – 
ध्यानयोगीको जिस अविनाशी सुखका अनुभव होता है, वह प्रकृतिजन्य गुणोंसे अतीत है। इसलिये उस सुखको 'आत्यन्तिक' अर्थात् सात्त्विक सुखसे विलक्षण, 'अतीन्द्रिय' अर्थात् राजस सुखसे विलक्षण और 'बुद्धिग्राह्य' अर्थात् तामस सुखसे विलक्षण बताया गया है। जड़ताके साथ सम्बन्ध रहनेसे ही मनुष्य विचलित होता है। ध्यानयोगीका जड़तासे सम्बन्ध सर्वथा छूट जाता है; अतः वह तत्त्वसे कभी विचलित नहीं होता। जैसे समाधिसे व्युत्थान होता है, ऐसे उसका अविनाशी सुखसे कभी व्युत्थान नहीं होता।


यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः । यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥ २२ ॥


जिस लाभकी प्राप्ति होनेपर उससे अधिक कोई दूसरा लाभ उसके माननेमें भी नहीं आता और जिसमें स्थित होनेपर वह बड़े भारी दुःखसे भी विचलित नहीं किया जा सकता।

व्याख्या - 
जिस सुखके लाभका तो अन्त नहीं है और हानिकी सम्भावना ही नहीं है, तथा जिसमें दुःखका लेश भी नहीं है ऐसे अखण्ड सुखके प्राप्त होनेमें ही सभी साधनोंकी पूर्णता है। 


तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम् । स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ॥ २३ ॥


जिसमें दुःखोंके संयोगका ही वियोग है, उसीको 'योग' नामसे जानना चाहिये। (वह योग जिस ध्यानयोगका लक्ष्य है), उस ध्यानयोगका अभ्यास न उकताये हुए चित्तसे निश्चयपूर्वक करना चाहिये । 

व्याख्या – 
'संयोग' तथा 'वियोग' का विभाग अलग और 'योग' का विभाग अलग है। शरीर-संसारके संयोगका वियोग तो अवश्यम्भावी है, पर परमात्माके 'योग' का कभी वियोग होता ही नहीं, होना सम्भव ही नहीं। कारण कि शरीर-संसार कभी हमारे साथ रहते
ही नहीं और परमात्मा कभी हमारा साथ छोड़ते ही नहीं। परमात्माका
यह योग सभी साधकोंका साध्य है।


सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः ।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ॥ २४ ॥ 


संकल्पसे उत्पन्न होनेवाली सम्पूर्ण कामनाओंका सर्वथा त्याग करके और मनसे ही इन्द्रियसमूहको सभी ओरसे हटाकर।


शनैः शनैरुपरमेद्बुद्ध्या धृतिगृहीतया । आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत् ॥ २५॥


धैर्ययुक्त बुद्धिके द्वारा (संसारसे) धीरे-धीरे उपराम हो जाय और मन (बुद्धि) को परमात्मस्वरूपमें सम्यक् प्रकारसे स्थापन करके फिर कुछ भी चिन्तन न करे।

व्याख्या- 
सर्वप्रथम साधक बुद्धिसे यह निश्चय कर ले कि सम्पूर्ण देश, काल, क्रिया, वस्तु, व्यक्ति आदिमें एक परमात्मतत्त्व चिन्मय सत्तामात्ररूपसे परिपूर्ण है। उस परमात्मतत्त्व के सिवाय कुछ भी नहीं है। तत्पश्चात् इस निश्चयका भी त्याग करके साधक बाहर-भीतरसे चुप हो जाय अर्थात् कुछ भी चिन्तन न करे, न संसारका, न आत्माका, न परमात्माका कारण कि साधक कुछ भी चिन्तन करेगा तो चित्त (जड़ ) साथमें रहेगा, चित्तसे सम्बन्ध विच्छेद नहीं होगा। वह किसीका भी चिन्तन करेगा तो किसीका ही चिन्तन होगा और किसीका भी चिन्तन नहीं करेगा तो परमात्माका चिन्तन होगा अर्थात् परमात्मामें स्थिति होगी। अन्य कोई भी चिन्तन यदि अपने-आप आ जाय तो साधक उसकी उपेक्षा कर दे अर्थात् उसमें न तो यह भाव आये कि 'यह बना रहे' और न ही यह भाव आये कि 'यह चला जाय'। उसमें न राग करे, न द्वेष करे और न उसे अपनेमें ही माने। मुझे कुछ भी चिन्तन नहीं करना है- ऐसा आग्रह भी साधक न रखे। साधकका स्वभाव ही स्वतः चुप, शान्त होनेका तथा अपने लिये कुछ न करनेका बन जाय।
भी चिन्तन न करनेसे जो साक्षीभाव रहेगा, वह पूर्वपक्ष- तो बुद्धिमें ही रहेगा ?

उत्तरपक्ष- 
साक्षीभाव तो बुद्धिमें रहेगा, पर उसका परिणाम स्वयंमें होगा; जैसे–युद्ध तो सेना करती है, पर परिणाममें विजय राजाकी ही होती है। साधकका यह साक्षीभाव भी बिना उद्योग किये स्वतः मिट जायगा।

पूर्वपक्ष–
व्यर्थ चिन्तनको मिटानेके लिये परमात्माका चिन्तन करें तो क्या आपत्ति है ?

उत्तरपक्ष- 
एक चिन्तन किया जाता है, एक स्वतः होता है। जैसे भूख लगनेपर अन्नका चिन्तन स्वतः होता है, ऐसे ही साधकको परमात्माका चिन्तन स्वतः होना चाहिये, जो परमात्माकी आवश्यकता समझनेपर ही होगा। परन्तु साधककी प्रायः यह दशा होती है कि उसे परमात्माका चिन्तन तो करना पड़ता है, पर संसारका चिन्तन स्वतः होता है। संसारके चिन्तनको मिटानेके लिये वह बलपूर्वक परमात्माका चिन्तन करता है। इसका परिणाम यह होता है कि बलपूर्वक किये गये चिन्तनका प्रभाव भी अन्तःकरणमें अंकित हो जाता है और संसारका चिन्तन भी होता रहता है। इससे साधक के भीतर यह अभिमान उत्पन्न हो जाता है कि मैंने इतने वर्षोंतक साधन किया अथवा वह निराश हो जाता है कि इतने वर्षोंतक साधन करनेपर भी लाभ नहीं हुआ ! अतः साधक निद्रा-आलस्य छोड़कर चुप, शान्त रहनेका स्वभाव बना ले। कुछ भी चिन्तन न करनेसे साधककी स्थिति स्वतः परमात्मामें ही होगी।


यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम् । ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ॥ २६॥ 


यह अस्थिर और चंचल मन जहाँ-जहाँ विचरण करता है, वहाँ-वहाँसे हटाकर इसको एक परमात्मायें ही भलीभाँति लगाये।


प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्। उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम् ॥ २७ ॥


जिसके सब पाप नष्ट हो गये हैं, जिसका रजोगुण शान्त हो गया है तथा जिसका मन सर्वथा शान्त (निर्मल) हो गया है, ऐसे इस ब्रह्मरूप बने हुए योगीको निश्चित ही उत्तम (सात्त्विक) सुख प्राप्त होता है। 


युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः ।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते ॥ २८ ॥ 


इस प्रकार अपने आपको सदा परमात्मामें लगाता हुआ पापरहित योगी सुखपूर्वक ब्रह्मप्राप्तिरूप अत्यन्त पखका अनुभव कर लेता है।

व्याख्या-
अपने-आपको परमात्मामें लगानेका तात्पर्य है छ भी चिन्तन न करना अर्थात् बाहर-भीतरसे चुप, शान्त हो जाना। न संसार (बाहर) का चिन्तन हो, न परमात्मा (भीतर) का। कुछ भी चिन्तन न करनेसे स्वतः साधककी स्थिति परमात्मतत्त्वमें होती है।

मनको परमात्मामें लगाना करणसापेक्ष साधन है (गीता ६ । २६), और अपने आपको परमात्मामें लगाना करणनिरपेक्ष साधन है। करणनिरपेक्ष साधनमें जड़ताका सम्बन्ध सर्वथा न रहनेसे साधक सुखपूर्वक परमात्माको प्राप्त कर लेता है। परन्तु करणसापेक्ष साधनमें परमात्माको कठिनतापूर्वक प्राप्त किया जाता है (गीता १२।५)।

सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि । ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥ २९ ॥


सब जगह अपने स्वरूपको देखनेवाला और ध्यानयोगसे युक्त अन्तःकरणवाला (सांख्ययोगी) अपने स्वरूपको सम्पूर्ण प्राणियों में स्थित देखता है और सम्पूर्ण प्राणियोंको अपने स्वरूपमें देखता है।

व्याख्या-
ध्यानयोगके जिस साधकमें ज्ञानके संस्कार रहते हैं, जो ज्ञानको ही मुख्य मानता है, वह जड़तासे सम्बन्ध विच्छेद होनेपर स्वयंको सब प्राणियों में तथा सब प्राणियोंको स्वयंमें अनुभव करता है।

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति । तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥ ३० ॥


जो (भक्त) सबमें मुझे देखता है और मुझमें सबको देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।

व्याख्या-
ध्यानयोगके जिस साधकमें भक्तिके संस्कार रहते हैं, जो भक्तिको ही मुख्य मानता है, वह जड़तासे सम्बन्ध विच्छेद होनेपर सबमें भगवान्‌को और भगवान्‌में सबको देखता है। अतः उसके लिये भगवान् अदृश्य नहीं होते और वह भगवान्‌के लिये अदृश्य नहीं होता। जब एक भगवान्‌के सिवाय दूसरी सत्ता है ही नहीं, भगवान् ही अनेक रूपोंमें प्रकट हो रहे हैं, फिर भगवान् कैसे छिपें, कहाँ छिपें, किसके पीछे छिपें? 


सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः । सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ॥ ३१ ।।


मुझमें एकीभावसे स्थित हुआ जो भक्तियोगी सम्पूर्ण प्राणियों में स्थित मेरा भजन करता है, वह सब कुछ बर्ताव करता हुआ भी मुझमें ही बर्ताव कर रहा है अर्थात् वह नित्य-निरन्तर मुझमें ही स्थित है।

व्याख्या- 
भगवान्‌का भक्त अपने शरीरके सहित सम्पूर्ण संसारको भगवान्‌का ही स्वरूप समझता है। इसलिये वह नित्य-निरन्तर भगवान्में ही रहता है और भगवान्‌में ही सब बर्ताव करता है। उसके भावमें ये पाँच बातें रहती हैं- (१) मैं भगवान्‌का ही हूँ, (२) मैं जहाँ भी रहता हूँ, भगवान्‌के दरबारमें ही रहता हूँ, (३) मैं जो भी शुभ कार्य करता हूँ, भगवान्का ही कार्य करता हूँ, (४) मैं शुद्ध-सात्त्विक जो भी पाता हूँ, भगवान्‌का ही प्रसाद पाता हूँ, और (५) भगवान्‌के दिये प्रसादसे भगवान् के ही जनोंकी सेवा करता हूँ। जैसे गंगाजलसे गंगाका पूजन किया जाय, ऐसे ही उस भक्तका बर्ताव भगवान्‌में ही होता है। जैसे शरीरसे सम्बन्ध माननेवाला मनुष्य सब क्रियाएँ करते हुए भी निरन्तर शरीरमें ही रहता है, ऐसे ही भक्त सब क्रियाएँ करते हुए भी निरन्तर भगवान्‌में ही रहता है।


आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन। सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥ ३२ ॥


हे अर्जुन! जो (भक्त) अपने शरीरकी उपमासे सब जगह मुझे समान देखता है और सुख अथवा दुःखको भी समान देखता है, वह परम योगी माना गया है।

व्याख्या-
जैसे सामान्य मनुष्य अपनेको शरीरमें देखता है और शरीरके सभी अंगोंको सुख पहुँचानेका तथा उनका दुःख (पीड़ा) दूर करनेका स्वाभाविक प्रयत्न करता है, वैसे ही सबमें भगवान्को देखनेवाला भक्त सभी प्राणियोंको सुख पहुँचानेकी तथा उनका दुःख दूर करनेकी स्वाभाविक चेष्टा करता है। ऐसा करनेमें उसके भीतर किंचिन्मात्र भी अभिमान नहीं होता।

अर्जुन उवाच-


योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन । एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम् ॥ ३३ ॥


अर्जुन बोले- 
हे मधुसूदन! आपने समतापूर्वक जो यह योग कहा है, मनकी चंचलताके कारण मैं इस योगकी स्थिर स्थिति नहीं देखता हूँ । चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवदृढम् । तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ॥ ३४ ॥

कारण कि हे कृष्ण ! मन (बड़ा ही) चंचल, प्रमथनशील, दृढ़ (जिद्दी) और बलवान् है। उसको रोकना मैं (आकाशमें स्थित) वायुकी तरह अत्यन्त कठिन मानता हूँ ।

श्रीभगवानुवाच-


असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् । अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥ ३५ ॥


श्रीभगवान् बोले– 

हे महाबाहो ! यह मन बड़ा चंचल है और इसका निग्रह करना भी बड़ा कठिन है—यह तुम्हारा कहना बिलकुल ठीक है। परन्तु हे कुन्तीनन्दन! अभ्यास और वैराग्यके द्वारा इसका निग्रह किया जाता है।

व्याख्या -
अर्जुनने दो श्लोकोंमें प्रश्न किया और भगवान्ने आधे श्लोकमें ही उसका उत्तर दिया- इससे सिद्ध होता है कि भगवान्ने मनकी एकाग्रताको अधिक महत्त्व नहीं दिया। 


असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः । वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः ॥ ३६॥


जिसका मन पूरा वशमें नहीं है, उसके द्वारा योग प्राप्त होना कठिन है। परन्तु उपायपूर्वक यत्न करनेवाले तथा वशमें किये हुए मनवाले साधकको योग प्राप्त हो सकता है, ऐसा मेरा मत है ।

व्याख्या- 
अर्जुनने ध्यानयोगके सिद्ध होनेमें मनकी चंचलताको बाधक मान लिया । वास्तवमें मनकी चंचलता उतनी बाधक नहीं है, जितना मनका वशमें न होना बाधक है। पतिव्रता स्त्री मनको एकाग्र नहीं करती, प्रत्युत मनको वशमें रखती है। 
मन एकाग्र होनेसे (अन्तःकरणमें स्थित रागके कारण) सिद्धियाँ आती हैं, जिससे जड़ताके साथ सम्बन्ध बना रहता है। दूसरी बात, मनको एकाग्र करनेके लिये अभ्यास आवश्यक है, जो जड़ताकी सहायताके बिना सम्भव नहीं है, तीसरी बात, एकाग्र होनेपर मन कुछ समयके लिये निरुद्ध हो जाता है, जिससे फिर हो जाता है। यह व्युत्थान जड़तासे सम्बन्ध होने के कारण ही होता है। तात्पर्य है कि मन एकाग्र होनेसे जड़तासे सम्बन्ध विच्छेद नहीं होता। परन्तु रागका नाश होनेपर जड़तासे सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है। इसलिये भगवान्के मतमें मनकी एकाग्रताका महत्त्व नहीं है, प्रत्युत रागरहित होनेका महत्त्व है |
मनको वशमें अर्थात् शुद्ध करनेके दो उपाय हैं- कहीं भी राग-द्वेष न होना और सबमें भगवान्‌को देखना। जबतक साधक के भीतर राग-द्वेष रहते हैं, तबतक वह सबमें भगवान्‌को नहीं देख पाता। जबतक साधक सबमें भगवान्‌को नहीं देखता, तबतक मन सर्वथा वशमें नहीं होता। कारण कि जबतक साधककी दृष्टिमें एक भगवान्‌के सिवाय दूसरी सत्ताकी मान्यता रहती है, तबतक मनका सर्वथा निरोध नहीं हो सकता।

अर्जुन उवाच-


अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः । अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति ॥ ३७॥


अर्जुन बोले - 
हे कृष्ण ! जिसकी साधनमें श्रद्धा है, पर जिसका प्रयत्न शिथिल है, वह (अन्तसमयमें) अगर योगसे विचलित हो जाय तो वह योगसिद्धिको प्राप्त न करके किस गतिको चला जाता है ? 


कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति । अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि ॥ ३८ ॥


हे महाबाहो ! संसारके आश्रयसे रहित और परमात्मप्राप्तिके मार्गमें मोहित अर्थात् विचलित –इस तरह दोनों ओरसे भ्रष्ट हुआ साधक क्या छिन्न-भिन्न बादलकी तरह नष्ट तो नहीं हो जाता ? 


एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः ।त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते ॥ ३९ ॥ 


हे कृष्ण! मेरे इस सन्देहका सर्वथा छेदन करनेके लिये आप ही योग्य हैं; क्योंकि इस संशयका छेदन करनेवाला आपके सिवाय दूसरा कोई हो नहीं सकता।

श्रीभगवानुवाच-


पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते । न हि कल्याणकृत्कश्चिदुर्गतिं तात गच्छति ॥ ४०॥


श्रीभगवान् बोले—

हे पृथानन्दन! उसका न तो इस लोकमें और न परलोकमें ही विनाश होता है; क्योंकि हे प्यारे ! कल्याणकारी काम करनेवाला कोई भी मनुष्य दुर्गतिको नहीं जाता।

व्याख्या-
जैसे कोई बद्रीनाथकी यात्रापर निकले तो वह रात होते-होते जहाँतक पहुँच चुका है, प्रातः उठनेके बाद वह वहींसे यात्रा आरम्भ करता है। रातको सोनेपर वह वापस अपने घर नहीं पहुँच जाता! ऐसे ही ध्यानयोगी जिस स्थितितक पहुँच चुका है, मरनेपर वह उस स्थितिसे नीचे नहीं गिरता। उसका किया हुआ साधन नष्ट नहीं होता। कारण यह है कि उसका उद्देश्य अपने कल्याणका बन चुका है। अब वह दुर्गतिमें नहीं जा सकता। इसलिये परमात्मप्राप्तिके मार्गमें निराश होनेका कोई स्थान नहीं है।


प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः । शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ॥ ४१ ॥


वह योगभ्रष्ट पुण्यकर्म करनेवालोंके लोकोंको प्राप्त होकर और वहाँ बहुत वर्षोंतक रहकर फिर यहाँ शुद्ध (ममतारहित) श्रीमानोंके घरमें जन्म लेता है। 


अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम् । एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम् ॥ ४२ ॥


अथवा (वैराग्यवान् योगभ्रष्ट) ज्ञानवान् योगियोंके कुलमें ही जन्म लेता है। इस प्रकारका जो यह जन्म है, यह संसारमें निःसन्देह बहुत ही दुर्लभ है।

व्याख्या - 
जिस साधकके भीतर भोगोंकी वासना नहीं मिटी है, ऐसा साधक योगभ्रष्ट होनेपर स्वर्गादि उच्च लोकोंमें जाता है, फिर श्रीमानोंके घरमें जन्म लेता है। परन्तु जिस साधकके भीतर भोगोंकी वासना मिट गयी है, ऐसा साधक (सूक्ष्म वासनाके कारण अन्त समयमें विषय-चिन्तन होनेसे) स्वर्गादि लोकोंमें न जाकर सीधे योगियोंके घरमें जन्म लेता है।


तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम् । यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन ॥ ४३॥


हे कुरुनन्दन! वहाँपर उसको पिछले मनुष्यजन्मको साधन-सम्पत्ति (अनायास ही) प्राप्त हो जाती है। फिर उससे (वह) साधनकी सिद्धिके विषयमें पुनः (विशेषतासे) यत्न करता है।

व्याख्या– 
योगियोंके कुलमें जन्म लेनेवाले साधककी बुद्धिमें पूर्वजन्मके बैठे हुए संस्कार स्वतः जाग्रत् हो जाते हैं। पहले किया हुआ साधन उसे बिना परिश्रम प्राप्त हो जाता है। सांसारिक सम्पत्ति तो मरनेपर सर्वथा छूट जाती है, पर पारमार्थिक सम्पत्ति मरनेपर भी साथ जाती है। कारण कि सांसारिक सम्पत्ति बाह्य है और पारमार्थिक सम्पत्ति आन्तरिक स्वयंमें बैठी बात नष्ट नहीं होती।


पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः । जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते ॥ ४४॥


वह (श्रीमानोंके घरमें जन्म लेनेवाला योगभ्रष्ट मनुष्य) भोगोंके परवश होता हुआ भी उस पहले मनुष्यजन्ममें किये हुए अभ्यास (साधन) के कारण ही (परमात्माकी तरफ) खिंच जाता है; क्योंकि योग (समता) का जिज्ञासु भी वेदोंमें कहे हुए सकाम कर्मोंका अतिक्रमण कर जाता है।

व्याख्या - 
स्वर्गादि लोकोंसे लौटकर श्रीमानोंके घरमें जन्म लेनेवाला साधक पहले किये हुए साधनके कारण जबर्दस्ती परमात्माकी तरफ खिंच जाता है। जो योगमें प्रवृत्त नहीं हुआ है, पर अन्तःकरणमें योगका महत्त्व

होनेके कारण जो योगको प्राप्त करना चाहता है, ऐसा योगका जिज्ञासु भी वेदोक्त सकामकर्मोंसे तथा उनके फलसे ऊँचा उठ जाता है, फिर जो योगमें लगा हुआ है और योगभ्रष्ट गया है, उसका कल्याण हो जाय- इसमें कहना ही क्या है !


प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः । अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्॥ ४५॥


परन्तु जो योगी प्रयत्नपूर्वक यत्न करता है और जिसके पाप नष्ट हो गये हैं तथा जो अनेक जन्मोंसे सिद्ध हुआ है, वह योगी फिर परम गतिको प्राप्त हो जाता है।

व्याख्या – 
'अनेकजन्म' का अर्थ है-एकसे अधिक जन्म । श्रीमानोंके घरमें जन्म लेनेवाला सर्वप्रथम मनुष्यजन्ममें साधन करके शुद्ध हुआ, फिर स्वर्गादि लोकोंमें जाकर वहाँके भोगोंसे अरुचि होनेसे शुद्ध हुआ, और फिर श्रीमानोंके घर जन्म लेकर तत्परतापूर्वक साधनमें लगकर शुद्ध हुआ- इस प्रकार तीन जन्मोंमें शुद्ध होना ही उसका 'अनेकजन्मसंसिद्ध' होना है।


तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः । कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ॥ ४६॥


(सकामभाववाले) तपस्वियोंसे भी योगी श्रेष्ठ है, ज्ञानियोंसे भी योगी श्रेष्ठ है और कर्मियोंसे भी योगी श्रेष्ठ है- ऐसा मेरा मत है। अतः हे अर्जुन! तू योगी हो जा ।

व्याख्या- 
जो लौकिक सिद्धियोंको पानेके लिये तपस्या करते हैं, जो शास्त्रोंके ज्ञाता हैं और जो सकामभावसे यज्ञ, दान आदि कर्म करते हैं, उन सबसे योगी श्रेष्ठ है। कारण कि तपस्वी, ज्ञानी और कर्मी- इन तीनोंका उद्देश्य संसार है और भाव सकाम है; परन्तु योगीका उद्देश्य परमात्मा है और भाव निष्काम है।


योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना । श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ॥ ४७॥


सम्पूर्ण योगियों में भी जो श्रद्धावान् भक्त मुझमें तल्लीन हुए मनसे मेरा भजन करता है, वह मेरे मतमें सर्वश्रेष्ठ योगी है।

व्याख्या- 
तपस्वियों, ज्ञानियों और कर्मियोंसे तो योगी श्रेष्ठ है, पर योगियोंसे भी भगवान्का भक्त सर्वश्रेष्ठ है। योगी तो योगभ्रष्ट हो सकता है, पर भक्त कभी योगभ्रष्ट हो सकता ही नहीं; क्योंकि वह भगवान्‌के आश्रित रहता है। भगवान्‌के ही आश्रित रहनेके कारण भगवान् उसकी विशेष रक्षा करते हैं। योगीमें तो मुक्त होनेपर भी अहम्की सूक्ष्म गन्ध रह सकती है, पर भक्तमें अहम्की सूक्ष्म गन्ध भी नहीं रहती। भक्तको उस प्रतिक्षण वर्धमान प्रेमकी प्राप्ति होती है, जिसकी भूख महायोगेश्वर भगवान्‌में भी है !

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे आत्मसंयमयोगो नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥