Maha ShivPuran |
* तेरहवां अध्याय *
(शिव रूप वर्णन)
- श्री शिव महापुराण
वामदेव बोले- हे भगवन् ! हे सब देवताओं के ईश्वर शिवजी के पूत्र! हे प्रणतारति भजन | छः प्रकार के अर्थ का ज्ञान कथा है । छः प्रकार के अर्थ कौन है और उनका ज्ञान है। इसका प्रति पादक कौन है। और इस ज्ञान का क्या फल है । जिसके जाने बिना जीव शास्त्रों से विभक्ति हो रहा हूँ। और शिव माया विमोहित हो रही है। मैं आपकी शरण हैं। आप मुझ पर कृपा कर उसी ज्ञानामृत को पिलाइये कि जिसे पानकर में मोहरहित हो जाऊँ । क्योंकि शिव प्रदत है । तब मुनियों ने इन वचनों को सुनकर शक्तिधारी प्रभु शास्त्र विरोधकों के लिएय महावास जनक वचन कहने लगे कि हे मुनि ! जो कुछ आपने पूछा है। वह समस्त प्रणवार्थ परिज्ञान रूप में तुम से सादर कहता हूँ। जो समष्ठि व्यक्ति के भाव से सर्वथा ही महेक्षर का है । हे सुब्रत ! अब उन छः प्रकार के अथो को कहता हूँ कि जिससे एक ही का परिज्ञान होता है। पहला मन्त्र रूप, दूसरा मन्त्र भाव तीसरा देवार्थ चौथा प्रमचार्थ पांचवा गुरु रूपका दिखाया हुआ अर्थ और छटवां शिव्य के आत्मरुप्रनुरूप कार्य । यही छः प्रकार अर्थ पहले कहे हैं। पहले उस मन्त्र के रूप सरूप का वर्णन सुनाइए कि विज्ञान मात्र से पुरुष ज्ञानी हो जाता है
पहला स्वर आकार है। उसके बाद पांचवां उ कार पड़ता है। और इसी प्रकार पवर्म का अन्त मकार, यही विन्दु और नारद है। इन्हीं पांचो को वेद में ओंकार कहा है। यही समष्ठि रूप है। और इसी को वेद में ओंकार कहा गया है। ये सदा विन्द की आदि में है यही व्यष्टि रूप से सिद्ध हो ओंकार शिव जी का वाचक है। इन्हीं पाँचों वर्णों की समाष्टि और बिन्दु आदि चार का समष्ट कला पुणव शिव का णचक है। और शिवजी के उप देश मार्ग से जो उसका विचार है। वहीं मन्त्र रूप है । इसी को पुणवराज कहते हैं और शिव का रूप है ।
English Translation:
*Thirteenth chapter*
(Shiva form description)
- Shri Shiva Maha Purana
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